Book Title: Uttaradhyayanam Sutram Part 03
Author(s): Chandraguptasuri
Publisher: Anekant Prakashan Jain Religious Trust

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Page 14
________________ उत्तराध्ययन ॥ १२ ॥ विंशतितममध्ययनम् (२०) गा४१-४३ मूलम्-चिरंपि से मुंडई भवित्ता, अथिरवए तवनिअमेहिं भट्टे । चिरंपि अप्पाण किलेसइत्ता, न पारए होई हु संपराए ॥४१॥ व्याख्या-चिरमपि मुण्ड एव मुण्डन एव सकलानुष्ठानविमुखतया रुचिर्यस्यासौ मुण्डरुचिर्भूत्वा, अस्थिरत्रतश्चञ्चलबतस्तपोनियमेभ्यो भ्रष्टः, चिरमप्यात्मानं क्लेशयित्वा लोचादिना बाधयित्वा, न पारगो भवति, हुर्वाक्यालंकारे, 'संपराएत्ति' सम्परायस्य संसारस्य ॥४१॥ मूलम्-पोल्लेव मुद्री जह से असारे, अयंतिए कूडकहावणे वा।। राढामणी वेरुलिअप्पगासे, अमहग्घए होइ हु जाणएसु ॥ ४२ ॥ व्याख्या--पौलेव सुषिरैव न मनागपि निविडा मुष्टियथा मुष्टिरिव स द्रव्यमुनिः असारः, असारत्वं च द्वयोरपि सदर्थशून्यत्वात् । अयंत्रितः कूटकार्षापण इव, यथाबसौ कूटत्वान्न केनापि नियंच्यते, तथैषोऽपि निर्गुणत्वादुपेक्ष्यत एवेति भावः । कुत एवमित्याह-यतो राढामणिः काचमणिर्वैडूर्यप्रकाशो वैडूर्यमणिकल्पोऽपि अमहाकः ममहामूल्यो भवति, हुरवधारणे 'जाणएसुत्ति' ज्ञेषु दक्षेषु, मुग्धजनविप्रतारकत्वात्तस्य ॥४२॥ मूलम्--कुसीललिंगं इह धारइत्ता, इसिज्झयं जीविय व्हइत्ता। असंजए संजयलप्पमाणे, विणिघायमागच्छह से चिरंपि ॥ ३ ॥ UTR-3

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