Book Title: Uttaradhyayanam Sutram Part 03
Author(s): Chandraguptasuri
Publisher: Anekant Prakashan Jain Religious Trust

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Page 16
________________ उत्तराध्ययन ॥ १४ ॥ विंशतितममध्ययनम्. (२०) गा ४६-४७ राणि तैर्जीवितुं शीलमस्येति कुहेटकविद्याश्रवद्वारजीवी । न गच्छति न प्राप्नोति शरण, तस्मिन् फलोपभोगोपलक्षिते काले समये ॥ ४५ ॥ अमुमेवार्थ विशेषादाह मूलम्-तमंतमेणेव उ से असीले, सया दुही विप्परिआसुवेइ । ___संधावइ नरगतिरिक्खजोणी, मोणं विराहित्तु असाहुरुवे ॥ ४६॥ व्याख्या-'तमंतमेणेव उत्ति' अतिमिथ्यात्वोपहततया तमस्तमसैव प्रकृष्टाज्ञानेनैव, तुः पृत्तौं, स द्रव्यमुनिः अशीलः सदा दुःखी विराधनाजनितदुःखानुगतो 'विपरिआसुवेइत्ति' विपर्यासं तत्वेषु वैपरीत्यमुपैति, ततश्च सन्धावति सततं गच्छति नरकतिर्यग्योनीः, मौनं चारित्रं विराध्यासाधुरूपस्तत्त्वतोऽयतिखभावः सन् । अनेन विराधनाया अनुबन्धवत् फलमुक्तम् ॥ ४६॥ कथं मौनं विराधयति, कथं वा नरकतिर्यग्गतीः सन्धावतीत्याहमूलम्--उद्देसिअं कीअगडं निआगं, न मुंचई किंचि अणेसणिज । अग्गी विवा सवभक्खी भवित्ता, इओ चुओ गच्छइ कट्ठ पावं ॥ ४७ ॥ व्याख्या-'निआगंति' नित्यपिण्डं, 'अग्गीविवत्ति' अग्निरिव सर्वमप्रासुकमपि भक्षयतीत्येवंशीलः सर्वभक्षी भूत्वा कृत्वा च पापं, इतो भवाच्युतो गच्छति, कुगतिमिति शेषः॥४७॥ कुत एतदेवमित्याह UTR-3

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