Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 15
________________ ५८२] उत्तराध्ययनसूत्रम् [चतुर्दशाध्ययनम् पदार्थान्वयः-सकम्मसेसेण-स्वकर्म शेष में पुराकएण-पूर्वकृत से य-फिर उदग्गेसु-प्रधान कुलेसु-कुल में ते-वे देवता पसूया-उत्पन्न हुए निविण्ण-उद्वेग से युक्त संसारभया-संसार के भय से जहाय-काम भोगों को छोड़कर जिणिंदमग्गं-जिनेन्द्र मार्ग की सरण-शरण को पवण्णा-प्राप्त हुए । - मूलार्थ-पूर्व जन्म के किये हुए अपने शेष कर्म से वे देवता प्रधान कुल में उत्पन्न हुए । फिर वे संसार के भय से निर्वेद को प्राप्त होते हुए काम भोगों का परित्याग करके जिनेन्द्र देव के मार्ग को प्राप्त हुए। टीका-वे देवता लोग पूर्वजन्म के किये हुए देवगति योग्य कमों के. . फल को भोग कर, शेष रहे शुभ कर्मों के फल को भोगने के लिये प्रधान कुल में उत्पन्न हुए और फिर भी संसार ( जन्म मरण ) के भय से निर्वेद को प्राप्त होते हुए, काम भोगों को छोड़कर श्री जिनेन्द्र देव के धर्म में दीक्षित हो गए। इसका तात्पर्य यह है कि पूर्वकृत शुभ कर्मों के प्रभाव से उत्तम कुल और तदनु रूप सामग्री की तो प्राप्ति हो जाती है परन्तु जिनेन्द्र देव के प्रतिपादन किये हुए धर्म की प्राप्ति तो आत्मा के क्षायिक और क्षयोपशम भाव पर ही निर्भर है । अतएव उक्त आत्माएँ दोनों प्रकार के सुखों से युक्त थे। इसी लिये सूत्रकार ने प्रधान कुल में जन्म और संसार से उद्विग्नता ये दोनों ही बातें उनमें दिखलाई हैं । तथा संसार से विरक्त होने वालों के लिये जिनेन्द्रप्रदर्शित मार्ग ही अधिकतर श्रेयस्कर है, यह भी प्रदर्शित कर दिया। अब शास्त्रकार यह बतलाते हैं कि प्रधान कुल में किस २ नाम वाले जीव उत्पन्न हुए और किस प्रकार से उन्होंने जिनोपदिष्ट मार्ग का अनुसरण किया । तथाहिपुम्मत्तमागम्म कुमार दो वी,. पुरोहिओ तस्स जसा य पत्ती। विसालकित्ती य तहेसुयारो, रायत्थ देवी कमलावई य ॥३॥.

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