Book Title: Tyagi Sanstha
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf

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Page 5
________________ १३२ धर्म और समाज और उपदेशकोंके बीच भी छोटे-बड़ेकी भावना पैदा करता है, फलस्वरूप एक आचार्य या एक विद्वान् अपनी ही संस्थाके दूसरे आचार्य या दूसरे विद्वान्के साथ बिलकुल निश्छल भाव या स्वतन्त्रतासे हिलमिल नहीं सकता। इस तरह प्रारंभमें भिन्न भिन्न संस्थाओंके बीच मेल करनेमें मिथ्या अभिमान सामने आता है और बादमें क्रमशः एक ही संस्थाके शक्तिशाली मुखियोंके बीच भी संधान नहीं रख सकता, उनमेंसे विनय और नम्रता जैसी वस्तु ही लगभग चली जाती है । जब एक जैन आचार्य दूसरे जैन आचार्यके ही साथ एकरस नहीं हो सकता, तब शंकराचार्य, बौद्ध आचार्य, या किसी पादरी, या मौलवीके साथ किस तरह हो सकेगा ? इस अंतरका कारण हूँढ़नेपर हम सांप्रदायिकताकी संकुचित भावनाके प्रदेशमें जा पहुंचते हैं। त्यागी-संस्थाका तीसरा गुण उसके सभ्योंमें त्यागका विकास करना, लोगोंमें दानवृत्ति जगाना या विकास करना बतलाया जाता है । संस्थाके सभ्यके लिए संचय करने जैसी कोई वस्तु नहीं होती, उन्हें ब्याहका बंधन भी नहीं होता, इसलिए उनमें संतोष और त्यागकी वृत्ति इच्छा या अनिच्छासे सुरक्षित रहती और विकसित होती है। इसी तरह इस संस्थाके निर्वाहकी चिन्ता लोगोंमें दानवृत्ति प्रकट करती और उसका विकास करती है। इसलिए ऐसी संस्थाओंसे विशिष्ट व्यक्तियोंमें त्यागका और साधारण लोगोंमें दानवृत्तिका पोषण होता है। इस तरह इस संस्थासे दोहरा लाभ है। पर सूक्ष्मतासे विचार करनेपर इस लाभके पीछे महान् दोष भी छुपा रहता है। वह दोष है आलस, कृत्रिम जीवन और पराश्रय । त्यागी-संस्थाके सब नियम त्याग-लक्षी होते है । नियमोंको स्वीकार करनेवाला कोई भी व्यक्ति संस्थामें प्रविष्ट हो सकता है। पर सभी प्रविष्ट होनेवाले सच्चे त्यागी बनकर नहीं आते। उन्हें त्याग तो पसंद होता है, परन्तु प्रारंभमें तैयार सुविधा मिलनेसे, उस सुविधाके लिए किसी तरहका शारीरिक परिश्रम न होनेसे और मनुष्य-स्वभावकी दुर्बलतासे धीरे धीरे वह आभ्यंतरिक त्याग खो जाता है। एक ओर बाध्य होकर अनिच्छापूर्वक त्यागलक्षी दिखनेवाले नियमोंके वशवर्ती होना पड़ता है और दूसरी ओर तैयार मिलनेवाली सुविधासे आलसका पोषण होनेके कारण दूसरोंकी दानवृत्तिके ऊपर अपनी भोगवृत्ति संतुष्ट करनी पड़ती है । इस तरह एक ओर सच्चे त्यागके बिना त्यागी दिखानेका प्रयत्न करना पड़ता है और दूसरी ओर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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