Book Title: Tyagi Sanstha
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf

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Page 10
________________ त्यागी-संस्था १३७ सेवक संस्थाका विधान (१) सेवक-संस्था प्रविष्ट होनेवाला सभ्य--स्त्री या पुरुष विवाहित हो या 'अविवाहित--उसे ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवन बिताना चाहिए । (२) हर एक सभ्यको अपनी आवश्यकतानुसार स्वश्रमसे ही पैदा करने वाला और स्वश्रम करनेके लिए तैयार होना चाहिए । (३) हर एक सभ्यको अपने समय और काम-काजके विषयमें संस्थाके व्यवस्थापक-मण्डलकी अधीनतामें रहना चाहिए। वह अपने प्रत्येक क्षणका हिसाब इस मंडलके सामने रखने के लिए बँधा हुआ होना चाहिए । (४) कमसे कम दिनके दस घंटे काम करनेके लिए बंधे हुए होना चाहिए, जिनमें कि उसके निर्वाहयोग्य स्वश्रमका समावेश होता है। (५) रुचि, शक्ति और परिस्थिति देखकर कार्यवाहक मंडल उसे जिस कामके लिए पसंद करे, उसीको पूरा करनेके लिए तैयार रहना चाहिए। (६) वह अपने किसी भी मित्र, भक्त या स्नेहीकी किसी भी तरहकी भेट खुद नहीं ले, यदि कुछ मिले तो उसे कार्यवाहक मंडलको सौंपनेके लिए प्रतिज्ञाबद्ध रहे और बीमारी या लाचारीके समय मंडल उसका निवाह करे। (७) जब त्याग और अपनी इच्छानुसार जीवन व्यतीत करनेकी वृत्ति कम हो जाय तब वह कार्यवाहक मंडलसे छुट्टी लेकर अलग हो सके, फिर भी जब तक उसका नैतिक जीवन बराबर हो तब तक उसकी त्यागी और सेवकके समान ही प्रतिष्ठा की जाय । (८) जो सभ्य क्लेश और कलह करता हो वह खुद ही संस्थासे अलग हो जाय, नहीं तो मंडलकी सूचनानुसार वह मुक्त होनेके लिए बँधा हुआ है । (९) कोई भी संस्था अपनेको ऊँची और दूसरीको नीची या हलकी न कहे; सब अपनी अपनी समझ और रीतिके अनुसार काम करते जाय और दूसरोकी ओर आदर-वृत्तिका विकास करें। (१०) समय समयपर एक संस्थाके सभ्य दूसरी संस्थामें जायँ और वहाँके विशिष्ट अनुभवोंका लाभ लेकर उन्हें अपनी संस्थामें दाखिल करें। इस तरह भिन्न मिन्न संस्थाओंके बीच भेदके तत्त्वका प्रवेश रोककर एक दूसरेके अधिक निकट आ जावें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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