Book Title: Tyagi Sanstha
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf

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Page 4
________________ त्यागी-संस्था १३१ मूल पुरुषके साहित्यमें भी कुछ वृद्धि कर दें, परन्तु कोई स्वतंत्र शोध, मूल पुरुषके मार्ग और संस्थाके वर्तुलसे भिन्न, कर ही नहीं सकते। हम किसी भी संस्थाका इतिहास देखें तो मालूम होगा, कि उसमें जो प्रस्वर व्याख्याकार और टीकाकार हुए हैं, उन्होंने अपनी टीकाओं और व्याख्याओंमें मूल अन्थकी निर्भय समालोचना शायद ही की है। __त्यागी संस्थाका दूसरा गुण यह है, कि वह लोगोंको मूलपुरुष और उसके अनुगामी अन्य विशिष्ट पुरुषोंकी महत्ताका भान कराती है । लोगोंको ऐसे पुरुषोंका विशेष परिचय मुख्य रूपसे उनकी संस्थाके सभ्योंके द्वारा ही मिलता है। यह एक महान् गुण है, पर इसके साथ ही साथ एक महान् दोष भी प्रविष्ट हो जाता है और वह है अभिमान। अक्सर ये संस्थायें मूल पुरुष और उसके अनुगामी दूसरे विशिष्ट पुरुषोंका महत्त्व देखने, विचारने और कहने में इतनी अधिक तल्लीन हो जाती हैं कि उनके विचारचक्षु दूसरे पड़ोसी महान् पुरुषोंकी महत्ताकी ओर शायद ही जा पाते हैं । इसीलिए हम देखते हैं कि इन त्यागी संस्थाओं के बुद्धिशाली गिने जानेवाले सभ्य भी दुसरी संस्थाओंके मूल उत्पादकोंके विषयमें अथवा अन्य विशिष्ट पुरुषों के विषयमें कुछ भी नहीं जानते, और यदि कुछ जानते हैं तो इतना ही कि हमारे मान्य और अभीष्ट पुरुषोंके सिवाय बाकीके सब अधूरे और त्रुटिपूर्ण हैं । उनमें उदारतासे देखने और निर्भय परीक्षा करनेकी शक्ति शायद ही रह जाती है। इस वातावरणमें एक तरहके अभिमानका पोषण होता है, इसलिए उनकी अपनी संस्थाके सिवाय दूसरी किसी भी संस्थाके असाधारण पुरुषोंकी ओर मान और आदरकी दृष्टिसे देखनेकी वृत्ति उनमें शायद ही रहती है। हजरत ईसाका अनुगामी कृष्णमें और बुद्धका अनुगामी महावीर में विशेषता देखनेकी वृत्ति खो बैठता है। यही अभिमान आगे बढ़कर दो त्यागी संस्थाओंके बीच भेद खड़ा कर देता है और एक दूसरेके बीच तिरस्कार और दोषदर्शनकी बुद्धि जाग्रत करता है; परिणामस्वरूप कोई भी दो संस्थाओंके सभ्य परस्पर सच्ची एकता सिद्ध नहीं कर सकते । ऐसी एकता साधनेके लिए उन्हें अपनी अपनी संस्था छोड़नेके लिए बाध्य होना पड़ता है। यह मिथ्या अभिमान विभिन्न संस्थाओंके सभ्योंके बीच अंतर खड़ा करके ही शान्त नहीं रह जाता, बल्कि और आगे बढ़ता है । और फिर एक ही संस्थाके अनुगामी मुख्य मुख्य आचार्यों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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