Book Title: Tulsi Prajna 1993 01
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 147
________________ तुलसी प्रज्ञा 141 कि मुझे पाठ अच्छी तरह याद हो गया ।" इस प्रसंग का रहस्य यही है कि मूल्यों की जानकारी कौरवों एवं पाण्डवों को दे दी गई थी किन्तु उस जानकारी का प्रभाव सब पर नहीं पड़ा था । महाभारत में दुर्योधन एक स्थल पर कहता है, “नानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः । जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः । इससे भी यही निष्कर्ष निकलता है कि मात्र मूल्यों का ज्ञान ही मनुष्य में परिवर्तन नहीं ला सकता । अब यदि हम यह मान लें कि मूल्यों की शिक्षा नहीं दी जा सकती तो हमें शिक्षा की इतनी बड़ी व्यवस्था की अनावश्यकता प्रतीत होने लगेगी । कोई भी माता-पिता यह नहीं चाहेगा कि उसके बच्चे शिक्षालयों में सब कुछ तो सीखें किन्तु नैतिक मूल्य सीखें ही नहीं। इसके विपरीत शिक्षित- अशिक्षित, सभी प्रकार के माता-पिता की यह आकांक्षा होती है कि उसके बच्चे विद्यालयों में अच्छी बातें ही सीखें। इन लोगों के मन में शिक्षा शब्द का अभिप्राय ही नैतिकतापूर्ण होता है। वे शिक्षा को एक नैतिक प्रत्यय ही मानते हैं। औपचारिक शिक्षा की योजना के पीछे समाज की यही मंशा दिखाई पड़ती है कि उसके अपने भावी सदस्य समाज की मान्यताओं में दीक्षित हो जाएं । राज्य औपचारिक शिक्षालयों को इसी आशा से सहायता देता है कि इनसे निकले हुए नवयुवक नैतिकता के गुणों से विभूषित होंगे और वे राज्य के सुयोग्य नागरिक बनेंगे । यह भावना सुकरात की धारणा से मिलती - जुलती है। शिक्षक की दृष्टि से यदि हम इस राय को मान लेते हैं कि मूल्यों की शिक्षा नहीं दी जा सकती तो हम अपने विषयों को पढ़ाते हुए भी छात्र के व्यक्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकते । “मूल्यों की शिक्षा सम्भव है।" यदि इस प्रत्यय पर हम विश्वास करते हैं तो यह विश्वास हमें प्रेरणा देता है । हमारा कार्य सोद्देश्य हो जाता है । हममें नई स्फूर्ति एवं नई चेतना का संचार हो जाता है । हम अपने कार्यों को जीवन के सन्दर्भ में देखने लगते हैं । प्रतिदिन की क्रियाओं को व्यापक पृष्ठभूमि मिल जाती है और कक्षा में किसी घंटी में पढ़ाए गए पाठ को एक नया अर्थ मिल जाता है। हम बालकों के व्यक्तित्व में परिवर्तन लाने की ओर उन्मुख हो जाते हैं । शिक्षक छात्रों का कल्याण तभी कर सकता है जब वह इस विश्वास से काम करे कि शिक्षा बालक के मार्ग को प्रशस्त करने में समर्थ है। मूल्य और समाज मूल्य का विकास समाज में होता है । सामाजिक सम्पर्क के परिणामस्वरूप हममें नैतिक मूल्यों का विकास होता है । हम कुछ मूल्यों को प्राथमिकता देते हैं व कुछ अन्य मूल्यों को त्यागते हैं । मानव आचरण केवल विचारों द्वारा ही नहीं होता अपितु भावों द्वारा भी होता है । सिद्धान्तों को भावों द्वारा शक्ति मिलती है । स्थायी भावों के आधार पर ही हम मूल्यों का चयन करते हैं | और उच्च मूल्यों के निरन्तर चुनाव करने से यह हमारा स्वभाव बन जाता है | शिक्षा का उद्देश्य उच्च मूल्यों के विकास के द्वारा चरित्र का निर्माण करना है। जनवरी- मार्च 1993 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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