Book Title: Tulsi Prajna 1993 01
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 151
________________ तुलसी प्रज्ञा 145 सफाई के मूल्य सिखाना विफल होगा उसके लिये संवेगात्मक स्थिति उत्पन्न करके उसकी भावनाओं को भी प्रभावित करना चाहिए । दीन- दुखियों पर दया करने का मूल्य हम दुःखियों के प्रत्यक्ष दर्शन करवाकर उनके भावों को जागृत करके ही विकसित कर सकते हैं। तभी पुष्टीकरण तथा अभ्यास के नियम भी सफल हो सकते हैं। बार-बार टोकने वाला नैतिक वातावरण भी छात्रों में विरोधी प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है। वह उन्हें व्यवहार बदलने का अवसर दिये बिना उनकी आत्मा को कोसेगा । क्योंकि शिक्षक के द्वारा प्रस्तुत मूल्यों का छात्र के सैद्धान्तिक मूल्यों के ज्ञान से विरोध नहीं होता है । वे उसके स्वयं के मूल्यों के ज्ञान से तो मेल खाते हैं किन्तु उनके व्यवहारिक पक्ष में जीवन में सही नहीं उतरते हैं क्योंकि उनके समाज में उनका उसके उपयुक्त उदाहरणों से पुष्टीकरण नहीं हो पाता है। हम मूल्यों के ज्ञानपक्ष तथा मौखिक उपदेशों पर ही बल देते हैं । उसके भावपक्ष तथा व्यावहारिक रूप की महत्ता को मूल्य प्रशिक्षण में उपयुक्त स्थान नहीं देते हैं । मानवीय मूल्य के स्वरूप तथा उनके प्रशिक्षण के विषय में मतैक्य है । उनके प्रशिक्षण का उत्तरदायित्व शिक्षा का है यह भी सर्वमान्य है किन्तु उसे कैसे कार्यान्वित किया जाये यही हमारी समस्या है। मूल्यों के प्रशिक्षण में बालकों के मूल्यों के सामान्य विकास को भी जानना आवश्यक है । मूल्यों के प्रशिक्षण में यह जानना आवश्यक है कि छात्र उसे विकसित करने योग्य है अथवा नहीं । मूल्यों के प्रशिक्षण में सीखने के अन्य क्षेत्रों की भांति ही सीखने की तत्परता का नियम भी महत्त्वपूर्ण होता है । इसमें विकास की परिपक्वता का स्तर तथा पूर्वानुभव दोनों सम्मिलित होते हैं। प्राथमिक कक्षाओं की अपेक्षा जनतांत्रिक मूल्यों की संस्तुति माध्यमिक कक्षाओं में करना उचित होगा । पूर्ण किशोरावस्था में विवाह तथा यौन नैतिकता की बात उतनी प्रभावशाली नहीं हो सकती जितनी युवावस्था में । - विभिन्न विकास की अवस्थाओं में बालक जिससे तादातम्य करता है उसी के अनुसार प्रशिक्षण सामग्री का भी निर्माण करना आवश्यक है | शैशवावस्था एवं बाल्यावस्था में जानवरों तथा परियों आदि कल्पित अमानवीय पात्रों से तादात्म्य करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण ही पंचतन्त्र की कहानियां मूल्य प्रशिक्षण में अधिक उपयुक्त रही हैं तथा पश्चात् की आयु में किशोरावस्था और युवावस्था में सम आयु के वीरों की जीवनियां अधिक प्रभावशाली हो सकती हैं। उस समय भावों के साथ- साथ नैतिक निर्णय के तर्क का भी विकास करना सम्भव होता है । अतः नैतिक प्रशिक्षण में दर्शन द्वारा दिये गये तथा समाजशास्त्र द्वारा अनुमोदित मानवीय मूल्यों का मनोवैज्ञानिक विधि के द्वारा सफलतापूर्वक प्रशिक्षण किया जा सकता है। जनवरी- मार्च 1993 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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