Book Title: Tristutik Mat Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Lakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara

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Page 5
________________ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । पाठकमहाशयों को यह हकीकत विदित होगी कि ता. १६१२ सन् १९१४ के "जैनशासन" पत्र में जैनभिक्षु' नाम के किसी महाशय ने कोरटातीर्थ के बारे में एक लेख दिया था जिस में त्रिस्तुतिक मत के प्रवर्तक श्रीराजेन्द्रमूरिजी के अनुचित कार्यों का भी दिग्दर्शन कराया था । पूर्वोक्त लेख को छपे करीब ८ आठ महीने बीत गये तब तक तो इस विषय के कुछ भी विश्वस्त समाचार नहीं मिले कि तीन थुई वाले इस के लिये क्या उपाय ले रहे हैं। बाद में तारीख ५-९-१९१५ के रोज की डाक में बुकपोस्ट से ' तीर्थकोटराजी के अनुचित लेख का समुचित उत्तर दान पत्र' इस नाम की दो पुस्तकें मुझे एका एक मिलीं। पुस्तक देखने से मालूम हुआ कि पूर्वोक्त-कोरटातीर्थ विषयक जैनभिक्षु के लेख का खंडन ही इस पुस्तक का खास साध्यबिंदु है, क्यों कि उक्त पुस्तक का लंबा चौड़ा नाम ही इस बात को कह रहा है। पुस्तक पढने से बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि लेखकों ने प्रथम से ही भूलचक्कर में पड़ के उलटे रास्ते गमन करना शुरु किया है। जैनभिक्षु कौन व्यक्ति है इस बात का तो लेखकों ने बिलकुल ही पता नहीं लगाया, और मुझी को कोरटा लेख का लेखक 'जैनभिक्षु' मान के सारी पुस्तक मुझ ही पर झूठे आक्षेप कर के भर दी। लेखकों की इस मुग्धता पर मुझे बड़ा ही आश्चर्य और हास्य प्राप्त हुआ। साथ में यह भी विचार उत्पन्न हुआ कि यद्यपि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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