Book Title: Tristutik Mat Mimansa Author(s): Kalyanvijay Gani Publisher: Lakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara View full book textPage 8
________________ प्रस्तावना। इस मेरी नोटीस का जवाब मुझे ता. २७-९-१९१५ को मिला जो बडा ही विचित्र और आश्चर्यकारी है। उस को यहां पर अक्षरशः लिख देता हूं। पाठक महोदय देखें कि लेखकों ने अपने अव्यवस्थित चित्त का कैसा दर्शन कराया है । ॥ श्रीः ॥ काणदर. ता. २०--९-१९१५. मुनिश्रीकल्याणविजयजी जालोर आपकी नोटीस आई वांच कर मालूम हुवा कि आप का अफसोस विषय साफ झूठा ही है कि जो असली " जैनभिक्षु" व्यक्ति का हम को निर्णय हो जाता तब तो उसी के प्रकट नाम से ही हम समुचित उत्तर दानपत्र प्रकाश करते परन्तु निर्णय का व्यवहार करने से भी व्यक्ति का नाम प्रकट न होने से अज्ञानांध गुरु और अज्ञानांध श्रद्धावान् जैनभिक्षु का नाम से ही पत्र प्रसिद्ध किया गया है तो आप झूठी भ्रमणा में पड के एसा क्यों लिखते हो कि मुझ ही को कोरटा के लेखका लेख क " जैनभिक्षु मान लिया और मेरे पर ही पूर्वोक्त पुस्तक में असभ्यता व गालियों की दृष्टि कर दी" वाह जी वाह हमने जो आप को कोरटा के लेखका लेखक निःसंदेहमान लिया होता तो आप का नाम लिखते हम को क्या शर्म आती थी आपका नाम हम कुछ नहीं जानते थे जो आपका नाम के स्थान में जहां तहां " जैनभिक्षुजी" ही धारण किया और जो जैनभिक्षुजी कल्याणविजयजी ऐसा पूर्वेक्त पुस्तक में लिखा होता तब तो असभ्यता व गालियों की दृष्टि कर दी यह लेख आप का सत्य होता नहीं तो हृदय में होय सो होंठमें आवे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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