Book Title: Triloksar
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
Publisher: Ladmal Jain

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Page 4
________________ और मुझ मूड को यह वृहकार्य करने की हामी भरनी पड़ी । सारी सामग्री अपने साथ जोधपुर ले आया और देवशास्त्रगुरु के स्मरणपूर्वक इस गम्भीर एवं जटिल कार्य में संलग्न हो गया। परेशानी यह थी कि प्रेस कापी करके सीधे प्रेस में भेजनी थी। मैं चाहता था कि मेरे लिखने के बाद पूज्य पण्डितजी उसे देख लेते, परन्तु मेरी यह शत भी उन्हें स्वीकार्य नहीं हुई। मैंने प्रेसकापी प्रेसको भेजी, यह सोचकर कि प्रफ पन्डितजी के पास सागर जायेंगे तो वहाँ भूलों का निवारण हो ही जाएगा परन्तु पूज्य बड़े महाराज ने विलम्ब को देखते हुए सायर प्रफ भेजने की अनुमति प्रेस को नहीं दो, यहाँ भी मुझे निराशा ही मिली । अस्तु, कई छोटी बड़ी कठिनाइयों के बाद भगवरकृपा एवं गुरुजनों के माशीर्वाद से यह विशाल कार्य पूरा कर सका हूँ । मेरे अत्यन्त सीमित ज्ञान के कारण अशुद्धियां रहना सम्भव है । दूरस्थ होने के कारण सारे प्रफ भी स्वयं नहीं देख मका हूँ। सिद्धान्त चक्रवर्ती धी नेप्रिनन्द्राक्षाग की इस पद्धृत मौलिक कृति की संस्कृत टीका उन्हीं के शिष्य माधवचन्द्र ऋषिध देव ने को है । पूज्य आचार्यकल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज के निर्देशनसंरक्षण में पू. विशुद्धमति माताजी ने विशेष श्रमपूर्वक इसको टोका सरल हिन्दी में लिखी है। भाषा सम्बन्धी भूलों का परिमान ५० पन्नालालजी ने किया है, गणित के जटिल विषय की विशेषज्ञ पं. रतनचन्दजी ने हल किया है। चित्ररचना श्री विमलप्रकाशजी जैन ( अजमेर ) तथा घी नेमीचन्दजी जंन कला अध्यापक, निवाई द्वारा हुई है। इस जटिल गणितीय विशालकाय ग्रन्थ का आकर्षक एवं सुरुचिपूर्ण मुद्रण असीम धैर्य के साथ कमल मिन्टस, मदनगंज के सम्बालक बी नेमीचन्दजो बाकलीवाल एवं भी पांचूलालजी बंद ने विशेष मनोयोग से किया है। वस्तुत: अपने वर्तमान रूप में प्रस्तुत यह सारी उपलब्धि इन्हीं महानुभावों की है। मैं तो कोरा नकलनवीस हूँ, मतः भूलें मेरी हैं। मैं इन सब पुण्य आत्माओं का हृदय से अत्यन्त आभारी है। अपनी भूलों के लिए सुधी गुणग्राही विद्वानों से क्षमा चाहता है। अस्तु । ६५६, सरदारपुरा विनीत जोधपुर वेतनप्रकाश पाटनी २५ दिसम्बर, १६७४

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