Book Title: Terapanth ka Rajasthani Gadya Sahtiya Author(s): Dulahrajmuni Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 4
________________ तेरापंथ का राजस्थानी गद्य साहित्य ५२६ .......................................................... ...... . . .. बाँट लेणा । पिण नितरौ नित पूछणौ नहीं । कनै वैसण दैणी नहीं, ऊभी रहिण दैणी नहीं । चरचा । बात करणी नहीं । बड़ा गुरुवादिकरा कह्यां थी कारण री बात न्यारी ।' दो-दो, चार-चार साधु साथ रहते हैं और पाँच-पाँच, सात-सात साध्वियां साथ रहती हैं। उनमें से कोई साधुसाध्वी दोष का सेवन कर ले । तब दूसरे साधु-साध्वियों का क्या कर्तव्य होता है, इसका सुन्दर चित्रण भिक्षु ने सं०१८४१ के लिखित में इस प्रकार किया है 'साध-साध मांहो मांहि भेला रहै, तिहां किण ही साथ नै दोष लागै धणी नै सताब तूं कहणो, अवसर देखन, पिण दोष भेला करणा नहीं । धणी ने कह्यां थकां प्राछित लैवै तो पिण गुरां ने कहि देणौ। जो प्राछित ले तो प्राछित रा धणी नै आर कराय नै, जे जे बोल लिखनै उणनै सूप देणी । इण बोल रौ प्राछित गुरु थाने देवै तो लीजौ। जो इण रौ प्राछित न हुवै तो ही कहिज । थे गाला गोलो कीजो मती। जो थे न कह्यो तौ महारा कहिवा रा भाव छै। संका सहित दौष भासै तो संका सहित कहिस्। निसंक पण दोष जाणूं छू ते निसंकपणे कहिलूँ । नहीं तो अजै ही पाधरा चालो।' 'म्हैं उणानै छोड्या जद पांच वर्ष तांइ तो पूरो आहार न मिल्यो। घी चोपर तो कठे। कपडो कदाचित् वासती मिलती ते सवा रुपया री। तो भारमलजी स्वामी कहिता पर्छवडी आपरै करौ । जद स्वामीजी कहिता एक चोलपटौ थारै करो, एक म्हारै करो। आहार पाणी जाचने उजाड़ में सर्व साध परहा जावता । रूँखरा री छाया तो आहार पाणी मेलने आतापना लेता, आथण रा पाछा गाम में आवता । इण रीतै कष्ट भोगता। कर्म काटता । म्है या न जाणता म्हारो मारग जमसी ने म्हां मैं यूं दीक्षा लेसी ने यूं श्रावक श्राविका हुसी। जाण्यो आत्मा रा कारज सारसां मर पूरा देसां इम जाण नै तपस्या करता। पछै कोई-कोई के सरधा बेसवा लागी। समझवा लागा। जद थिरपालजी फतचन्दजी माहिला साधां कह्यो-लोग तो समझता दीस है। थे तपस्या क्यू करो। तपस्या करण में तो म्हें छांईज। थे तो बुद्धिमान् छो सो धर्म रो उद्योत करौ । लोकां ने समझावो। जद पछै विशेष रूप करवा लागा। आचार अणुकंपा री जोडां करी। व्रत अव्रत री जोडां करी। घणा जीवां ने समझाया। पछै वखान जोड्यो। -भिक्षु दृष्टान्त २७६ इस गद्य में स्वामीजी के अन्तःकरण की भावना, पवित्रता, निरभिमानता और साधना की उत्कटता स्पष्ट झलकती है। थोकडा आपने कई 'थोकडे' लिखे। उनमें 'तेरह द्वार' का थोकड़ा बहुत प्रसिद्ध है। इसमें नौ तत्त्वों-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष-को तेरह विभिन्न द्वारों (अपेक्षाओं) से समझाया गया है। बे तेरह द्वार हैं-मूल, दृष्टान्त, कुण, आत्मा, जीव, अरूपी, निरवद्य, भाव, द्रव्य, गुण-पर्याय, द्रव्यादिक, आज्ञा, विनय, तालाब। मैं इनकी स्पष्ट अभिव्यक्ति के लिए प्रथम तथा अन्तिम द्वार का उल्लेख करता हूँ 'जीव ते चेतना लक्षण, अजीव ते अचेतना लक्षण, पुण्य ते शुभ कर्म, पाप ते अशुभ कर्म, कर्म ग्रहै ते आस्रव, कर्म रोके ते संवर, देशथकी कर्म तोड़ी देशयी जीव उज्ज्वल भाव ते निर्जरा, जीव संघाते शुभाशुभ कर्म बन्ध्या ते बन्ध, समस्त कर्मों से मुकावं ते मोक्ष।' -द्वार पहला 'तलाब रूपी जीव जाणवो । अतलाब से तलाब रूपी अजीव जाणवों । निकलता पाणी रूप पुण्यपाप जाणवा । नाला रूप आस्रव जाणवो। नाला बंध रूप संवर जाणवो। मोरी करी ने पाणी काढ़े ते निर्जरा जाणबो । महिला पाणी रूप बंधजाणवो । खाली तलाब रूप मोक्ष जाणवो।'-द्वार तेरहवाँ - - - 0 ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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