Book Title: Terapanth ka Rajasthani Gadya Sahtiya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 1
________________ -. -. -. -. -. तेरापंथ का राजस्थानी गद्य साहित्य O मुनि श्री दुलहराज, युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के शिष्य साहित्य की गंगा अनेक धाराओं में प्रवाहित रही है। उद्गम स्थल में धारा एक होती है परन्तु ज्यों-ज्यों वह अपने क्षेत्र को विस्तृत करती हुई आगे बढ़ती है, उसकी अनेक धाराएँ हो जाती हैं। प्रत्येक धारा अपनी एक विशेषता को लेकर प्रवाहित होती है। वह मूल से सर्वथा विभिन्न नहीं होती। प्रत्येक धारा में मूल प्रतिबिम्बित रहता है, फिर भी उसका अपना एक वैशिष्ट्य होता है ओ अन्य धाराओं में नहीं मिलता। साहित्य की दो मुख्य धाराएँ हैं-गद्य और पद्य । इनके अवान्तर भेद अनेक हो सकते हैं । गद्य साहित्य सरल और सुबोध होता है और पद्य साहित्य कठिन और दुर्बोध । यह भी अकारण नहीं है। गद्य विस्तार-रुचि का परिणाम है और पद्य संक्षेप रुचि का । विस्तार-रुचि से लिखा गया साहित्य प्रत्येक अंश की विशद व्याख्या करता हुआ आगे बढ़ता है। उसका दृष्टिकोण होता है कि मेरी बात पाठक को स्पष्ट समझ में आए । कहीं भी कोई बात निगूढ़ न रहे। सामान्यत: गद्य साहित्य से ऐसे साहित्य का बोध होता है जो वास्तव में ध्वन्यात्मक हो, शब्दों की अभिव्यंजना किसी शाश्वत तथ्य की पुष्टि करती हो। पद्यात्मक विधा सीमा में प्रवाहित होने वाली धारा है। उसका अपना निश्चित विधान और विज्ञान होता है। वह उनका अतिक्रमण नहीं कर सकती । यह थोड़े में बहुत कहने की विधा है । यह मर्म को छूती है, परन्तु बहुत कम व्यक्ति इसे आत्मसात् कर पाते हैं। तेरापंथ प्राणवान् संघ है । इसका इतिहास केवल दो सौ वर्ष पुराना है। आचार्य भिक्षु इसके प्रवर्तक थे। उन्होंने विक्रम संवत् १८१७ में इसका प्रारम्भ किया। वह समय एक धार्मिक कट्टरता का समय था। स्थान-स्थान पर धार्मिक चर्चाएँ होती थीं, वाद-विवाद आयोजित किये जाते थे। एक पक्ष अपनी श्रेष्ठता और सत्यता को प्रमाणित करने के लिए तर्कों को ढूंढ़ता था। इस प्रक्रिया ने अनेक ग्रन्थों के आलोड़न-विलोड़न की ओर मुमुक्षुओं को प्रेरित किया। इससे तथ्यात्मक ज्ञान की वृद्धि के साथ-साथ तर्क-प्रतितर्क का विकास हुआ और परिणामस्वरूप विशाल साहित्य का निर्माण हो गया। तेरापंथ गण ने अपनी इस २१५ वर्षों की कलावधि में अनेक साहित्यकारों को उत्पन्न किया है, जिन्होंने विपुल साहित्य-सृजन कर राजस्थानी साहित्य-भण्डार को भरा है। उनमें आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु तथा चतुर्थ गणी श्री मज्जयाचार्य का नाम सर्वोपरि है। इन दोनों विभूतियों ने राजस्थानी भाषा में विपुल साहित्य की रचना की। अधिक रचनाएँ पद्यात्मक हैं और उनका विषय भी धार्मिक मान्यताओं के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित करना रहा है। इन दोनों विभूतियों ने राजस्थानी गद्य में भी अनेक रचनाएँ लिखीं। इन रचनाओं में राजस्थानी भाषा का वैविध्य नजर आता है। उसका कारण है-मुनिवृन्द का परिव्रजन । जैन मुनि एक स्थान पर नहीं रहते। वे निरंतर परिव्रजन करते रहते हैं । यही कारण है कि उनकी भाषा में विविधता होती है और उसका स्फुट-प्रतिबिम्ब साहित्य में यत्र-तत्र दृग्टिगोचर होता है। दूसरी बात है कि जैन संघ में विभिन्न प्रान्तों के व्यक्ति प्रवृजित होते हैं, अत: यह स्वाभाविक भी है कि उनकी अपनी मातृभाषा पर प्रान्तीय भाषा का प्रभाव पड़ता है। उसमें अनेक शब्द उस प्रान्त के आ घुसते है और कालान्तर में उस भाषा के अभिन्न अंग बन जाते हैं। आज राजस्थान में बोली जाने वाली भाषा को राजस्थानी कहा जाता है, किन्तु उसमें भी बहुत अन्तर है। थली प्रदेश की भाषा में भी अन्तर है। बीकानेर की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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