Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 52
________________ विपाकोऽनुभवः।।२१।। कर्मों में फलदान शक्ति का पड जाना विपाक है। स यथानाम।।२२।। वह अनुभाग बंध कर्म की प्रकृतियों के नामानुसार होता है। ततश्च निर्जरा॥२३॥ कर्मफल भोग के पश्चात् उन कर्मों की निर्जरा हो जाती है। नामप्रत्ययाः सर्वतो योग विशेषात्सूक्ष्मैक क्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानंतप्रदेशाः।।२४।। आत्मा के योग विशेषों द्वारा त्रिकाल बँधने वाले नामादि प्रकृतियों के कारणी भूत तथा आत्मा के सर्व प्रदेशो में व्याप्त होकर कर्म रूप परिणमने योग्य सूक्ष्म और जिस क्षेत्र में आत्मा ठहरा हो उसी क्षेत्र को अवगाह कर ठहरने वाले ऐसे अनन्तानन्त प्रदेश रूप पुद्गल स्कंधों को प्रदेशबंध कहते हैं। सद्वेद्यः शुभायुर्नामगोत्राणिपुण्यम्।।२५।। सातावेदनीय, शुभायु, शुभनाम और शुभगोत्र ये पुण्य रूप प्रकृतियाँ हैं। अतोऽन्यत् पापम्।।२६।। उक्त प्रकृतियों से बाकी बची हई कर्म प्रकृतियाँ पाप रूप अशुभ प्रकृतियाँ हैं। इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे अष्टमोऽध्यायः।

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