Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 50
________________ सहित क्रोध मान, माया और लोभ रूप सोलह प्रकार का होता है। इसतरह कुल ३+१+१६= २८ भेद हुए। नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि।।१०।। नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव इस तरह आयु कर्म की चार प्रकृतियाँ हैं। गतिजातिशरीरांगोपांगनिर्माणबंधनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगंधवर्णानुपूर्व्यागुरुलघूपघात परघातातपोद्याताच्छ्वासविहायागतय: प्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वर शुभसूक्ष्मपर्याप्ति स्थिरादेययश: कीर्तिसेतराणि तीर्थकरत्वंच।।११।। १ गति, २ जाति, ३ शरीर, ४ अंगोपांग, ५ निर्माण, ६ बंधन, ७ संघात, ८ संस्थान, ९ संहनन, १० स्पर्श, ११ रस, १२ गंध, १३ वर्ण, १४ आनुपूर्व्य, १५ अगुरुलघु, १६ उपघात, १७ परघात, १८ आतप, १९ उद्योत, २० उच्छ्वास, २१ और बिहायोगति ये इक्कीस तथा २२ प्रत्येक शरीर, २३ त्रस, २४ सुभग, २५ सुस्वर, २६ शुभ, २७ सूक्ष्म, २८ पर्याप्ति, २९ स्थिर, ३० आदेय, ३१ यश: कीर्ति ये दश। तथा इनके प्रतिपक्षी ३२ साधारण शरीर, ३३ स्थावर, ३४ दुर्भग, ३५ दुस्वर, ३६ अभशु, ३७ बादर, ३८ अपर्याप्ति, ३९ अस्थिर, ४० अनादेय, ४१ अयशकीर्ति ये दश ४२ तीर्थकरत्व ये बयालीस प्रकृति नामकर्म की हैं। उच्चैर्नीचैश्च ।१२॥ उच्च गोत्र और नीच गोत्र ये दो गोत्र कर्म के भेद हैं। दान लाभ भोगोपभोग वीर्याणाम् ।।१३।।

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