Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 54
________________ लोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः । १ अनित्य, २ अशरण, ३ संसार, ४ एकत्व, ५ अन्यत्व, ६ अशुचि, ७ आश्रव ८ संवर, ९ निर्जरा, १० लोक, ११ बोधिदुर्लभ, १२ धर्म इनमें कहे हुए तत्त्वों का चिन्तवन ये बारह भावनाएँ हैं। मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः ॥ ८ ॥ मोक्षमार्ग से अलग नहीं हो जावे इसलिए था कर्मों की निर्जरा करने के लिए परीषह सहना चाहिए । क्षुत्पिपासा शीतोष्ण दंशमशक नाग्न्यारतिस्त्री चर्यानिषद्याशय्याऽऽक्रोशवधयाञ्चालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रााऽज्ञानादर्शनानि ।।९।। १ भूख, २ प्यास, ३ ठंड, ४ गर्मी, ५ दंशमशक (डांस मच्छर), ६ नग्नता, ७ अरति, ८ स्त्री ९ चर्या (चलना), १० निषद्या (आसन), ११ शय्या शयन, १२ आक्रोश (गाली), १३ बध, १४ याचना, १५ अलाभ, १६ रोग, १७ तृणस्पर्श, १८ मल, १९ सत्कार पुरस्कार, २० प्रज्ञा, २१ अज्ञान, २२ अदर्शन ये परीषह हैं। सूक्ष्मसाँपरायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश । १० ।। सूक्ष्मसांपरायनामक दशवें गुणस्थान वालों के तथा छद्मस्थ वीतराग अर्थात् उपशांत कषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान में रहने वालों के चौदह परिषह होती हैं। एकादश जिने । ११ ।। तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिन ( केवली भगवान्) के ग्यारह परिषह होती हैं। बादर साम्पराये सर्वे ॥ १२ ॥

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