Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
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तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता
ज्ञानदर्शनावरणयोः।१०।। ज्ञान तथा दर्शन के विषय में प्रदोष (द्वेष), निह्नव (गुरु आदि का नाम छिपाना), मात्सर्य (ईर्षा), अन्तराय (विघ्न) आसादन और उपघात ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आश्रव होने के कारण हैं
वस्थापतचा
दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभ
यस्थान्यसद्वेद्यस्य।११।। दुख, शो, ताप (पश्चाताप) आक्रन्दन (अश्रुपात पूर्वक रुदन), वध और परिदेवन (छाती फाड़रुदन) ये खुद करना दूसरों को कराना अथवा दोनों को एक साथ उत्पन्न करना ये असातावेदनीय कर्म के आश्रव हैं।
भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगःक्षान्ति:
शौचमितिसद्वेद्यस्य।१२॥ जीवों में और व्रतधारियों में दया, दान, सरागसंयम (राग सहित संयम) आदि योग, क्षमा और शोच इनसे साता वेदनीय कर्म का आश्रव होता है।
केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य।१३।। केवलज्ञानी का, शास्त्र का, मुनियों के संघ का, अहिंसामय धर्म का और देवों का अवर्णवाद (निंदा) करना दर्शन मोहनीय कर्म के आश्रव का कारण है।
कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य।१४।। कषायों के उदय से तीव्र परिणाम होना चारित्र मोहनीय कर्म के आश्रव का कारण है।

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