Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 39
________________ मन, वचन, काय के योगों की कुटिलता और अन्यथा प्रवृत्ति अशुभ नाम कर्म के आश्रव का कारण है। तद्विपरीतं शुभस्य॥२३॥ इससे विपरीत अर्थात् योगों की सरलता और विसंवाद का अभाव शुभनाम कर्म के आश्रव का कारण है। दर्शन विशुद्धिर्विनयसंपन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसीसाधुसमाधिर्वैयावृत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचन भक्तिरावश्यका - परिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमितितीर्थकरत्वस्य (१) दोष रहित निर्मल सम्यक्तव (२) विनय सम्पन्नता (३) शील और व्रतों में अतिचार का अभाव (४) निरन्तर तत्वाभ्यास (५) संवेग (६) यथाशक्ति दान (७) तप (८) साधुसमाधि (९) वैयावृत्य (१०) अर्हद्भक्ति (११) आचार्य भक्ति (१२) बहुश्रुत भक्ति (१३) प्रवचनभक्ति (१४) समायिक आदि छह आवश्यक क्रियाओं को निश्चित रूप से पालन करना (१५) जैनधर्म की प्रभावना और (१६) साधर्मी जीवों के साथ गौ बछड़े के समान प्रेम करना ये सोलह भावनाएँ तीर्थंकर नामकर्म के आश्रव का कारण है। परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ।।२५।। पर की निंदा, अपनी प्रशंसा करके विद्यमान गुणों का आच्छादन और अपने अवद्यिमान गुणों का प्रकाशन ये नीच गोत्र कर्म के आश्रव के कारण हैं। तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य ॥ २६ ॥

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