Book Title: Tattvanushasanadi Sangraha
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ १० वैराग्य-मणिमाला । यह श्रुतसागरसूरिके शिष्य श्रीचन्द्रकी रची हुई है। श्रुतसागर विद्यानन्दिभहारकके शिष्य थे। उनका समय विक्रमकी १६ वीं शताब्दि है । श्रीचन्द्रका बनाया हुआ और कोई ग्रन्थ देखनेमें नहीं आया पं. गणेशचन्द्रजी गोधाने जयपुरकी किसी प्रतिपरसे इसकी कापी प्रेस तैयार करके भेजनेकी कृपा की थी। ११ तत्त्वसार । इस प्राकृत ग्रन्थके कर्ता देवसेनसूरि हैं और ये संभवतः वे ही हैं जिनके बनाये हुए दर्शनसार और आराधनासार ये दो प्राकृत ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। दर्शनसारकी रचनाका समय विक्रम संवत् ९९० है । श्रीयुक्त बाबू जुगलकिशोरजीकी लिखी हुई कापीपरसे यह ग्रन्थ मुद्रित कराया गया है। १२ श्रुतस्कन्ध । इसके कर्ता ब्रह्मचारी हेमचन्द्र हैं। उन्होंने तैलंग देशक कुण्डनगरके उद्यानके चन्द्रप्रभजिनालयमें रहते हुए इसकी रचना की थी। वे रामनन्दि सैद्धान्तिकके शिष्य थे। उनके विषयमें इससे अधिक कुछ भी मालूम नहीं हुआ । श्रीयुक्त पं. पन्नालालजी वाकलीवालने ७-८ वर्ष पहले मेरे लिए जयपुरके किसी पुस्तकालयकी प्राचीन प्रतिपरसे इसकी एक प्रेस कापी करके भेजने की कृपा की थी, उसी परसे यह ग्रन्थ छपाया गया है। १३ ढाढसी गाथा । इसके कर्ता कोई काष्ठासंघी आचार्य हैं । सोलहवीं शताब्दिके श्रुतसागरसूरिने षट्पाहुड़की टीकामें इसकी एक गाथा उद्धृत की है। पं० इन्द्रलालजीके द्वारा जयपुरके भण्डारसे इसकी प्रति प्राप्ति हुई, और उसी परसे यह छपाई गई। १४ ज्ञानसार । यह ग्रन्थ पद्मसिंहमुनिकृत है । इसे उन्होंने वि० सं० १०८६ में अंबक नामके नगरमें रचा था। इसके सिवाय इनके विषयमें और कुछ भी मालूम नहीं । पं० गणेशचन्द्रजी गोधाके द्वारा हमें इसकी एक प्रति प्राप्त हुई थी। ढाढसी गाथा और ज्ञानसारकी संस्कृतच्छाया पं० मनोहरलालजीद्वारा कराई गई है। इस संग्रहके ग्रन्थोंके प्राप्त करनेमें और संशोधनादि करनेमें जिन जिन सजनोंसे सहायता प्राप्त हुई है, उनके हम बहुत ही कृतज्ञ हैं । निवेदकनाथूराम प्रेमी Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 186