Book Title: Tapagachhiya Tithi Pranalika Ek Tithi Paksh Author(s): Vijaynandansuri Publisher: Vijaynandansuri View full book textPage 3
________________ कल्याणक-तिथि नित्य पर्वतिथि नहीं है । कल्याणक-तिथिओं को पर्वतिथि के रूपमें बतायी है तथापि वह बारह पर्वतिथि के प्रकार की नहीं है । क्योंकि लौकिक पंचांग में कल्याणक-तिथि की क्षय-वृद्धि होने पर भी आराधना में वही क्षय-वृद्धि कायम रहती है । उसकी बदली में श्री विजयदेवसूरीय परंपरा में अन्य तिथि की क्षय-वृद्धि आज दिन तक की गयी नहीं है । और वह परंपरा उचित भी है । क्योंकि बारह पर्वतिथि नित्य पर्वतिथि है और कल्याणक-तिथि आदि नैमितिक पर्वतिथि है। और इन दोनों में यही अंतर वास्तविक है । अत एव बारह पर्वतिथि की क्षय-वृद्धि में अन्य अपर्वतिथि की क्षयवृद्धि की जाती है किन्तु कल्याणक-तिथि की क्षय-वृद्धि में निश्चय ही अन्य तिथि की क्षय-वृद्धि की जाती नहीं है । 12 पर्वतिथि में अपवाद वचन का स्थान नित्य ही रहता है। लौकिक पंचांग में 1 (प्रतिपदा) का क्षय हो तब आराधना में भी 1 (प्रतिपदा) का क्षय किया जाता है । और 1 (प्रतिपदा) की आराधना बीज के दिन की जाती है । बेसता वर्ष या बेसता महिना भी बीज के दिन ही गिना जाता है और उसी निमित्त से स्नात्र आदि भी बीज के दिन ही किया जाता है किन्तु पूर्णिमा प्रतिपदा, अमावास्या-प्रतिपदा इकट्ठे किये जाते नहीं है और प्रतिपदा का कार्य पूर्णिमा या अमावास्या के दिन किया जाता नहीं है। 2 (बीज) के क्षय होने पर प्रतिपदा का क्षय किया जाता है । और 1 और 2 दोनों की आराधना बीज के दिन की जाती है किन्तु 1-2 इकट्ठे किये जाते नहीं हालांकि "क्षये पूर्वाo"-"वृद्धौ उत्तरा०"वचन का स्थान-अवकाश नित्य पर्वतिथि स्वरूप बारह पर्वतिथि में निश्चय ही पूर्णतः है और बाकी अपर्वतिथि व नैमितिक पर्वतिथि स्वरूप कल्याणक-तिथि आदि में यथासंभव विभाषापूर्वक अवकाश है। क्वचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः, क्वचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव । विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य, चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ।। इस प्रकार की व्यवस्था प्राचीन काल से चली आती है । अत एव तिथि और तिथि की आराधना में कोई गरबड़ी नहीं होती है । 3(तृतीया) का क्षय होने पर त्रीज का क्षय किया जाता है । 3-4 एक साथ बोले जाते है और एक साथ गिने जाते है । त्रीज की आराधना बीज के दिन नहीं की जाती किन्तु 3-4 एक साथ मानकर बीज के बाद आये हो दिन अर्थात् चतुर्थी के दिन की जाती है । त्रीज की सालगिराह भी बीज के दूसरे दिन मनायी जाती है । वैसे अक्षय तृतीया का क्षय होने पर, वैशाख शुक्ल-2 के बाद ही 3-4 साथ में मानकर उसी दिन वर्षीतप के पारणा किया जाता है । किन्तु वैशाख शुक्ल-3 का क्षय होने पर वैशाख शुक्ल-2 के दिन वर्षीतप का पारणा नहीं का जाता है । इस प्रकार 2-3 इकट्ठे नहीं के जाते है । क्योंकि ऐसा करने पर वर्षीतप की आराधाना में एक दिन कम होता है । 4 (चतुर्थी) का क्षय होने पर चतुर्थी का क्षय किया जाता है । और 3-4 साथ में बोले जाते है और मनाये जाते है । 3-4 दोनों तिथि की आराधना तृतीया के दिन ही की जाती है। 5 (पंचमी) का क्षय होने पर चतुर्थी का क्षय किया जाता है । और 3-4 साथ में मानकर 3-4 दोनों तिथि की आराधना एक ही दिन में की जाती है किन्तु 4-5 इकडे नहीं किये जाते है । 6(छठ्ठ) के क्षय होने पर 6 का क्षय किया जाता है । छठ की आराधना पंचमी और छठु एक साथ मानकर पंचमी के दिन नहीं की जाती है । किन्तु छत्रु पर्व-अपर्वतिथि के क्षय होने पर एक तिथि पक्ष की तिथि की और आराधना की शुद्ध प्रणालिकाPage Navigation
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