Book Title: Tap Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 2
________________ ६१ तप निर्ग्रन्थों की तपस्या की समालोचना भी आती है ? । इसी तरह जहाँ बुद्ध ने अपनी पूर्व-जीवनी शिष्यों से कही वहाँ भी उन्होंने अपने साधना काल में की गई कुछ ऐसी तपस्यात्रों का वर्णन किया है जो एक मात्र निर्ग्रन्थ-परंपरां की ही कही जा सकती हैं और जो इस समय उपलब्ध जैन आगमों में वर्णन की गई निर्ग्रन्थ-तपस्याओं के साथ अक्षरशः मिलती हैं। अब हमें देखना यह है कि बौद्ध पिटकों में आनेवाला निर्ग्रन्थ-तपस्या का वर्णन कहाँ तक ऐतिहासिक है । ४ 4 खुद ज्ञातपुत्र महावीर का जीवन ही केवल उग्र तपस्या का मूर्त स्वरूप है, जो आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध में मिलता है। इसके सिवाय आगमों के सभी पुराने स्तरों में जहाँ कहीं किसी के प्रत्रज्या लेने का वर्णन आता है वहाँ शुरू मैं ही हम देखते हैं कि वह दीक्षित निर्ग्रन्थ तपःकर्म का आचरण करता है । एक तरह से महावीर के साधुसंघ की सारी चर्या ही तपोमय मिलती है । अनुत्तरोववाई आदि आगमों में अनेक ऐसे मुनियों का वर्णन है जिन्होंने उत्कट तप से अपने देह को केवल पंजर बना दिया है । इसके सिवाय आज तक की जैन परंपरा का शास्त्र तथा साधु - गृहस्थों का आचार देखने से भी हम यही कह सकते हैं कि महावीर के शासन में तप की महिमा अधिक रही है और उनके उत्कट तप का असर संघ पर ऐसा पड़ा है कि जैनत्व तप का दूसरा पर्याय ही बन गया है । महावीर के विहार के स्थानों में अंग-मगध, काशी - कोशल स्थान मुख्य हैं । जिस राजगृही आदि स्थान में तपस्या करनेवाले निर्ग्रन्थों का निर्देश बौद्ध ग्रन्थों में त्राता है वह राजगृही आदि स्थान तो महावीर के साधना और उपदेश- समय के मुख्य धाम रहे हैं और उन स्थानों में महावीर का निर्ग्रन्थ-संघ प्रधान रूप से रहा है । इस तरह हम बौद्धपिटकों और आगमों के मिलान से नीचे लिखे परिणाम पर पहुँचते हैं १ -- खुद महावीर और उनका निर्ग्रन्थ-संघ तपोमय जीवन के ऊपर अधिक भार देते थे । २- - मगध के राजगृही आदि और काशी- कोशल के श्रावस्ती आदि शहरों में तपस्या करनेवाले निर्ग्रन्थ बहुतायत से विचरते और पाए जाते थे । १. मज्झिम सु० ५६ और १४ । २ देखो ५० ५८, टि० १२. ३. भगवती ६. ३३ । २.१. । ६.६ । ४. भगवती २. १ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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