Book Title: Tap
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 1
________________ जैन धर्म और दर्शन शब्द है जैसा बौद्ध पिटकों में भी है। इस तरह बौद्ध पिटकों के उल्लेखों और जैन श्रागमों के वर्णनों का मिलान करते हैं तो यह मानना ही पड़ता है कि पिटकं और आगमों का वर्णन सचमुच ऐतिहासिक है। यद्यपि भ० महावीर के बाद उत्तरोत्तर सचेलता की और निर्ग्रन्थों की प्रवृत्ति बढ़ती गई है तो भी उसमें अचेलत्व रहा है और उसी की प्रतिष्ठा मुख्य रही है । इतनी ऐतिहासिक चर्चा से हम निम्नलिखित नतीजे पर निर्विवाद रूप से पहुँचते हैं १-भ० महावीर के पहले इतिहासयुग में निर्ग्रन्थ-परंपरा सचेल ही थी। . . २-भ० महावीर ने अपने जीवन के द्वारा ही निर्ग्रन्थ-परंपरा में अचेलत्व दाखिल किया। और वही निर्ग्रन्थों का आदर्श स्वरूप माना जाने लगा तो भी पाश्वोपत्यिक-परंपरा के निर्ग्रन्थों को अपनी नई परंपरा में मिलाने की दृष्टि से निग्रन्थों के मर्यादित सचेलत्व को भी स्थान दिया गया, जिससे भ० महावीर के समय में निर्ग्रन्थ-परंपरा के सचेल और अचेल दोनों रूप स्थिर हुए और सचेल में भी एकशाटक ही उत्कृष्ट प्राचार माना गया । ३-भ० महावीर के समय में या कुछ समय बाद सचेलत्व और अचेलत्व के पक्षपातियों में कुछ खींचातानी या प्राचीनता-अर्वाचीनता को लेकर वाद-विवाद होने लगा, तब भ० महावीर ने या उनके समकालीन शिष्यों ने समाधान किया कि अधिकार भेद से दोनों आचार ठीक हैं, यद्यपि प्राचीनता की दृष्टि से तो सचेलता ही मुख्य है, पर अचेलता नवीन होने पर भी गुणदृष्टि से मुख्य है । सचेलता और अचेलता के बीच जो सामंजस्य हुआ था वह भी महावीर के बाद करीब दो सौ ढाई सौ साल तक बराबर चलता रहा । आगे दोनों पक्षों के अभिनिवेश और खींचातानी के कारण निर्ग्रन्थ-परंपरा में ऐसी विकृतियाँ श्राई कि जिनके कारण उत्तरकालीन निर्ग्रन्थ वाङ्मय भी उस मुद्दे पर विकृत-सा हो गया है। तप बौद्ध-पिटकों में अनेक जगह 'निगंठ' के साथ 'तपस्सी', 'दी तपस्सी' ऐसे विशेषण आते हैं, इस तरह कई बौद्ध सुत्तों में राजगृही आदि जैसे स्थानों में तपस्या करते हुए निग्रन्थों का वर्णन है, और खुद तथागत बुद्ध के द्वारा की गई १. देखो पृ० ८८, टि० २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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