Book Title: Tao Upnishad Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 18
________________ ताओ उपनिषद भाग २ लेकिन दुख की यह धार हमारे ही कारण है। इससे उलटा जो कर लेता है, उसका नाम तप है। वह दुख की धार को छूता रहता है और सुख की फिक्र छोड़ देता है। धीरे-धीरे दुख की धार मिट जाती है और सारा जीवन सुख हो जाता है। जिस चीज को आप छुएंगे, वह मिट जाएगी। जिस चीज को आप मांगेंगे, वह खो जाएगी। जिसके पीछे आप दौड़ेंगे, उसे आप कभी नहीं पा सकेंगे। ___ इसलिए जीवन गणित नहीं, एक पहेली है। और जो गणित की तरह समझता है, वह मुश्किल में पड़ जाता है। जो उसे एक रहस्य और एक पहेली की तरह समझता है, वह उसके सार राज को समझ कर जीवन की परम समता को उपलब्ध हो जाता है। लाओत्से कहता है, 'सोने और हीरे से जब भवन भर जाए, तब मालिक उसकी रक्षा नहीं कर सकता है।'' ये उलटी बातें मालूम पड़ती हैं, कंट्राडिक्टरी मालूम पड़ती हैं, विरोधाभासी मालूम पड़ती हैं। लाओत्से कहता है, जब सोने और हीरे से भवन भर जाए, तब मालिक उसकी रक्षा नहीं कर सकता है। असल में, मालिक तभी तक रक्षा कर सकता है अपनी संपत्ति की, जब तक गरीब हो; जब तक इतनी संपत्ति हो कि जिसकी रक्षा वह स्वयं ही कर सके। गरीब ही कर सकता है। जिस दिन संपत्ति की रक्षा के लिए दूसरों की जरूरत पड़नी शुरू हो जाती है, उसी दिन तो आदमी अमीर होता है। और जिस दिन से दूसरों के द्वारा सुरक्षा की जरूरत आ जाती हैं, उसी दिन से भय प्रवेश कर जाता है। क्योंकि दूसरों के हाथ में संपत्ति कहीं सुरक्षित हो सकती है? इसलिए इस जमीन पर एक अनूठी घटना घटती है कि गरीब यहां कभी-कभी अमीर जैसा सोया देखा जाता है और अमीर यहां सदा ही गरीब जैसा परेशान देखा जाता है। भिखारी यहां कभी-कभी सम्राट की शान से जी लेते हैं और सम्राट यहां भिखारियों से भी बदतर जीते . हैं। क्योंकि जो हमारे पास है, उसकी रक्षा का उपाय भी दूसरे के हाथ में देना पड़ता है। चंगीजखान की मृत्यु हुई। वह मृत्यु महत्वपूर्ण है। चंगीजखान जैसा आदमी स्वभावतः मृत्यु से भयभीत हो जाएगा। और अपनी मृत्यु न आए, इसके लिए उसने लाखों लोगों को मारा। लेकिन जितने लोगों को वह मारता गया, उतना ही भयभीत होता गया कि अब कोई न कोई उसे मार डालेगा। अपनी रक्षा के लिए उसने जितने लोगों की हत्या । की, उतने शत्रु पैदा कर लिए। रात वह सो नहीं सकता था। क्योंकि रात अंधेरे में कुछ भी हो सकता है। और संदेह उसके इतने घने हो गए कि अपने पहरेदारों पर भी वह भरोसा नहीं कर सकता था। तो पहरेदारों पर पहरेदार, और पहरेदारों पर पहरेदार, ऐसी उसने सात पर्ते बना रखी थीं। उसके तंबू के बाहर सात घेरों में एक-दूसरे पर पहरा देने वाले लोग थे। और जब किसी पहरेदार पर इतना भी भरोसा न किया जा सके और उसके ऊपर भी बंदूक रखे हुए दूसरा आदमी खड़ा हो और उस दूसरे आदमी पर भी तीसरा आदमी खड़ा हो, तो ये पहरेदार मित्र तो नहीं हो सकते हैं। यह चंगीजखान को भी समझ में आता था। लेकिन तर्क जो करता है, वह यही कि वह पहरेदारों की संख्या बढ़ाए चला जाता था कि अगर इतने से नहीं हो सकता, तो और बढ़ा दो। और एक रात, दिन भर का थका-मांदा, उसे झपकी लग गई। रात सोता नहीं था। अपनी तलवार हाथ में लिए बैठा रहता था। कभी भी खतरा हो सकता था। चंगीज सिर्फ दिन में सोता था, भरी दुपहरी में। जब रोशनी होती चारों तरफ, तब सो पाता था। उस दिन झपकी लग गई। पास में बंधे हुए घोड़ों में से कोई घोड़ा छूट गया रात। भाग-दौड़ मची। लोग चिल्लाए। घबरा कर चंगीज उठा। अंधेरे में उसने समझा कि दुश्मन ने हमला कर दिया। तंबू के बाहर भागा। तंबू की खूटी में पैर फंस कर गिरा। तंबू की खूटी ही उसके पेट में धंस गई। यह तंबू सुरक्षा के लिए था। यह खूटी रक्षा के लिए थी! ये पहरेदार, ये घोड़े, यह सब इंतजाम था, व्यवस्था थी। कोई मारने नहीं आया था। किसी ने मारा भी नहीं चंगीज को। चंगीज मरा अपने ही भय से। सुरक्षा के उपाय के लिए भागा था।

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