Book Title: Tao Upnishad Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 17
________________ सफलता के खतरे, अळंकार की पीड़ा और स्वर्ग का द्वार क्योंकि वैसा सुख, जो पूर्व में जाना था, अब नहीं मिलता है। तब हम और पागल की तरह हाथों को पकड़ेंगे। और ज्यादा पकड़ेंगे और कोशिश करेंगे कि उस सुख का हमें अनुभव हो जाए। वह सुख खो जाएगा। हमारी चेष्टा ही उस सुख का अंत बन जाएगी। हम सभी सुख को नष्ट करते रहते हैं। क्योंकि जो हमें मिलता है, हम उसे पागल की तरह पाने की कोशिश करते हैं। उसमें ही वह खो जाता है। जिंदगी बहुत अदभुत है। अदभुत इस अर्थों में है कि यहां उलटी घटनाएं घटती हैं। जो आदमी पाए सुख को पाने की दुबारा कोशिश नहीं करता, उसे वह सुख रोज-रोज मिल जाता है। और जो अपनी धार की तीक्ष्णता की फिक्र ही नहीं करता बार-बार जांच करने की, उसकी धार, उसकी तलवार की धार सदा ही तीक्ष्ण बनी रहती है। मैंने सुना है कि रूस के एक थियेटर में एक दिन बड़ी मुश्किल हुई थी। बड़ा नाटक चल रहा था। और उस नाटक में एक हकलाने वाले आदमी का काम था। वह हकलाने वाला आदमी अचानक बीमार पड़ गया, जो हकलाने का अभिनय करता था। और ऐन वक्त पर खबर आई, और पर्दा उठने के करीब था। और मैनेजर और मालिक घबड़ाए, क्योंकि उसके बिना तो सारी बात ही खराब हो जाती। वही हास्य था उस पूरे नाटक में। उसी की वजह से रंग था। कोई उपाय नहीं था, और किसी आदमी को इतनी जल्दी हकलाने का अभ्यास करवाना भी मुश्किल था। लेकिन तभी किसी ने कहा कि हमारे गांव में एक हकलाने वाला आदमी है, हम उसे ले आते हैं। उसे सिखाने की कोई जरूरत नहीं है। आप उससे कुछ भी कहो, वह हकलाता ही है। और सब तरह के इलाज हो चुके हैं, बड़े चिकित्सक उसको देख चुके हैं। उसका कोई इलाज अब तक सफल नहीं हुआ है। वह धनपति का लड़का है। उसे ले आया गया। और बड़ा चमत्कार हुआ, उस दिन वह नहीं हकला सका। पहली बार जिंदगी में, नाटक के मंच पर खड़ा होकर, वह युवक नहीं हकला सका। क्या हुआ? मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर इतना सचेतन कोई हो जाए, तो कोई भी चीज खो जाती है। कोई भी चीज खो जाती है। मैं एक नगर में था और एक युवक को मेरे पास लाया गया। युवक विश्वविद्यालय का स्नातक है। और बड़ी तकलीफ में है। तकलीफ उसकी यह है कि चलते-चलते अचानक वह स्त्रियों जैसा चलने लगता है। मनोचिकित्सा हो चुकी है, मनोविश्लेषण हो चुका है। दवाइयां हो चुकी हैं, सब तरह के उपाय किए जा चुके हैं। लेकिन दिन में दो-चार बार वह भूल ही जाता है। और अब एक कालेज में अध्यापक का काम करता है, तो बड़ी कष्टपूर्ण बात हो गई है। मैं उस युवक को कहा कि मैं एक ही इलाज समझता हूं और वह यह कि जब भी तुम्हें खयाल आ जाए, तब तुम जान कर स्त्रियों जैसा चलना शुरू कर दो। रोको मत। अब तक तुमने रोकने की कोशिश की है। और गैर-जाने में तुम स्त्रियों जैसा चलने लगते हो और जान कर पुरुष जैसे चलते हो। अब तुम इसे उलट दो। अब तुम्हें जब भी खयाल आए, तुम जान कर स्त्रियों जैसा चलो। उसने कहा, आप क्या कह रहे हैं! मैं वैसे ही मुसीबत में पड़ा हूं। बिना जाने ही मुसीबत में पड़ा हूं। और अब जान कर भी चलूंगा, तब तो चौबीस घंटे स्त्रियों जैसा ही चलता रहूंगा। मैंने उससे कहा, तुम मेरे सामने ही चल कर बता दो। उसने बहुत कोशिश की, वह नहीं चल पाया। चेतना का एक नियम है, जिस चीज की आप बहुत कोशिश करते हैं, उसकी धार मिट जाती है। उसकी धार को पाना मुश्किल है। हम सभी सुख की धार को मार लेते हैं। और बड़े मजे की बात है कि दुख में हमारे धार बनी रहती है। हम इतना दुख जो पाते हैं, इसका कारण जगत में बहुत दुख है ऐसा नहीं, हमारे जीने के ढंग में बुनियादी भूल है। दुख को हम कभी छूना नहीं चाहते, इसलिए उसमें धार बनी रहती है। और सुख को हम छुते-छूते रहते हैं निरंतर, उसकी धार मर जाती है। आखिर में हम पाते हैं, दुख ही दुख रह गया हाथ में और सुख की कोई खबर नहीं रही। तब हम कहते हैं कि सुख तो मुश्किल से कभी मिला हो मिला हो, सपना मालूम पड़ता है। सारा जीवन दुख है।

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