Book Title: Syadwad aur Vadibhasinh Author(s): Darbarilal Kothiya Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf View full book textPage 7
________________ जीवकी सिद्धि एक दूसरे अनुमानसे भी होती है और जो निम्न प्रकार है :-- 'जीव पृथिवी आदि पंच भूतोंसे भिन्न तत्त्व है, क्योंकि वह सत् होता हुआ चैतन्यस्वरूप है और अहेतुक (नित्य) है।' आत्माको चैतन्यस्वरूप मानने में चार्वाकको भी विवाद नहीं है. क्योंकि उन्होंने भी भतसंहतिसे उत्पन्न विशिष्ट कार्यको ज्ञानरूप माना है । किंतु ज्ञान भूतसंहतिरूप शरीरका कार्य नहीं है, क्योंकि स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे वह शरीरका कार्य प्रतीत नहीं होता। प्रकट है कि जिस इन्द्रियप्रत्यक्षसे मिट्टी आदिका ग्रहण होता है उसी इन्द्रियप्रत्यक्षसे उसके घटादिक विकाररूप कार्योका भी ग्रहण होता है और इसलिये घटादिक मिट्टी आदिके कार्य माने जाते हैं । परन्तु यह बात शरीर और ज्ञान में नहीं है--शरीर तो इन्द्रियप्रत्यक्षसे ग्रहण किया जाता है और ज्ञान स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे । यह कौन नहीं जानता कि शरीर तो आँखोंसे देखा जाता है किंतु ज्ञान आँखोंसे देखने में नहीं आता। अतः दोनोंकी विभिन्न प्रमाणोंसे प्रतीति होनेसे उनमें परस्पर कारणकार्यभाव नहीं है । जिनमें कारणकार्यभाव होता है वे विभिन्न प्रमाणोंसे गृहीत नहीं होते । अतः ज्ञानस्वरूप आत्मा भूतसंहतिरूप शरीरका कार्य नहीं है। और इसलिये वह अहेतुक--नित्य भी चार्वाक-यदि ज्ञान शरीरका कार्य नहीं है तो न हो पर वह शरीरका स्वभाव अवश्य है और इसलिये वह शरीरसे भिन्न तत्त्व नहीं है, अतः उक्त हेतु प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्ध है ? जैन--नहीं, दोनोंकी पर्यायें भिन्न भिन्न देखी जाती हैं, जिस तरह शरीरसे बाल्यादि अवस्थाएँ उत्पन्न होती है उस तरह रागादिपर्यायें उससे उत्पन्न नहीं होती--वे चैतन्यस्वरूप आत्मासे ही उत्पन्न होती हैं किन्तु जो जिसका स्वभाव होता है वह उससे भिन्न पर्यायवाला नहीं होता। जैसे सड़े महुआ और गुडादिकसे उत्पन्न मदिरा उनका स्वभाव होनेसे भिन्न द्रव्य नहीं है और न भिन्न पर्यायवाली है । अतः सिद्ध है कि ज्ञान शरीरका स्वभाव नहीं है । अतएव प्रमाणित होता है कि आत्मा भूतसंघातसे भिन्न तत्त्व है और वह उसका न कार्य है तथा न स्वभाव है। इस तरह परलोकी नित्य आत्माके सिद्ध हो जानेपर स्वर्ग-नरकादिरूप परलोक भी सिद्ध हो जाता है। अतः चार्वाकोंको उनका निषेध करना तर्कयुक्त नहीं है । इसलिये जो जीव सुख चाहते हैं उन्हें उसके उपायभूत धर्मको अवश्य करना चाहिए, क्योंकि बिना कारणके कार्य उत्पन्न नहीं होता' यह सर्वमान्य सिद्धान्त है और जिसे ग्रन्थके आरम्भमें ही हम ऊपर कह आये हैं । २. फलभोक्तृत्वाभावसिद्धि बौद्ध आत्माको भतसंघातसे भिन्न तत्त्व मानकर भी उसे सर्वथा क्षणिक--अनित्य स्वीकार करते है, परन्तु वह युक्त नहीं है; क्योंकि आत्माको सर्वथा क्षणिक मानने में न धर्म बनता है और न धर्मफल बनता है। स्पष्ट है कि उनके क्षणिकत्वसिद्धान्तानुसार जो आत्मा धर्म करनेवाला है वह उसी समय नष्ट १. शरीरे दृश्यमानेऽपि न चैतन्यं विलोक्यते । शरीरं न च चैतन्य यतो भेदस्तयोस्ततः ।। चक्षषा वीक्ष्यते गात्रं चैतन्यं संविदा यतः । भिवज्ञानोपलम्भेन ततो भेदस्तयोः स्फुटम् ।। पद्मपुराण । - २९३ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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