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योग - पृथक्त्वगुण से उनमें भेद बन जाता है अतः अभेद होने का प्रसंग नहीं आता और न फिर उसमें उक्त दोष रहता है ?
जैन - नहीं, पृथक्त्वगुणसे भेद माननेपर पूर्ववत् आत्मा और बुचयादिमें घटादिकी तरह भेद प्रसक्त होगा ही ।
एक बात और है । समवायसे आत्मामें बुद्धयादिका सम्बन्ध माननेपर मुक्त जीवमें भी उनका सम्बन्ध मानना पड़ेगा, क्योंकि वह व्यापक और एक है ।
योग - बुद्धयादि अमुक्त प्रभव धर्म हैं, अतः मुक्तोंमें उनके सम्बन्धका प्रसंग खड़ा नहीं हो सकता है ?
जैन - नहीं, बुद्धघादि मुक्तप्रभव धर्म क्यों नहीं हैं, इसका क्या समाधान है ? क्योंकि बुद्धयादिका जनक आत्मा है और वह मुक्त तथा अमुक्त दोनों अवस्थाओं में समान है । अन्यथा जनकस्वभावको छोड़ने और अजनकस्वभावको ग्रहण करनेसे आत्माके नित्यपनेका अभाव आवेगा ।
योग - बुद्धयादि अमुक्त समवेतधर्म हैं, इसलिये वे अमुक्त - प्रभव - मुक्तप्रभव नहीं है ?
जैन - नहीं, क्योंकि अन्योन्याश्रय दोष आता है । बुद्धयादि जब अमुक्तसमवेत सिद्ध हो जायें तब वे 'अमुक्त प्रभव सिद्ध हों और उनके अमुक्तप्रभव सिद्ध होनेपर वे अमुक्त समवेत सिद्ध हों । अतः समवायसे आत्मा तथा बुद्ध्यादिमें अभेदादि माननेमें उक्त दूषण आते हैं और ऐसी दशा में वस्तुको सर्वथा नित्य माननेपर धर्मकर्ता फलका अभाव सुनिश्चित है ।
६. सर्वज्ञाभावसिद्धि
नित्यैकान्तका प्रणेता — उपदेशक भी सर्वज्ञ नहीं है; क्योंकि वह समीचीन अर्थका कथन करनेवाला नहीं है । दूसरी बात यह है कि वह सरागी भी है । अतः हमारी तरह दूसरोंको भी उसकी उपासना करना योग्य नहीं है ।
सोचने की बात है कि जिसने अविचारपूर्वक स्त्री आदिका अपहरण करनेवाला तथा उसका नाश करनेवाला दोनों बनाये वह अपनी तथा दूसरोंकी अन्योंसे कैसे रक्षा कर सकता है ?
साथ ही जो उपद्रव एवं झगड़े कराता है वह विचारक तथा सर्वज्ञ नहीं हो सकता । यह कहना युक्त नहीं कि वह उपद्रवरहित है, क्योंकि ईश्वरके कोपादि देखा जाता है |
अतः यदि ईश्वरको आप इन सब उपद्रवोंसे दूर वीतराग एवं सर्वज्ञ मानें तो उसीको उपास्य भी स्वीकार करना चाहिये, अन्य दूसरेको नहीं । रत्नका पारखी काचका उपासक नहीं होता ।
यह वीतराग - सर्वज्ञ ईश्वर भी निरुपाय नहीं है । अन्यथा वह न वक्ता बन सकता है और न सशरीरी । उसे वक्ता माननेपर वह सदा वक्ता रहेगा - अवक्ता कभी नहीं बन सकेगा ।
यदि कहा जाय कि वह वक्ता और अवक्ता दोनों है, क्योंकि वह परिणामी है तो यह कहना भी ठीक नहीं है । कारण, इस तरह वह नित्यानित्यरूप सिद्ध होनेसे स्याद्वादकी ही सिद्धि करेगा - कूटस्थ नित्यकी नहीं ।
अपि च, उसे कूटस्थ नित्य माननेपर उसके वक्तापन बनता भी नहीं है, क्योंकि उसको सिद्ध करनेवाला प्रत्यक्षादि कोई भी प्रमाण नहीं हैं । आगमको प्रमाण माननेपर अन्योन्याश्रय दोष होता है ।
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