Book Title: Syadwad aur Vadibhasinh
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ भोक्तृत्वाभावसिद्धि वस्तुको सर्वथा नित्य मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उस हालत में आत्माके कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों नहीं बन सकते हैं । कर्तृत्व माननेपर भोक्तृत्व और भोक्तृत्व माननेपर कर्तृत्व के अभावका प्रसंग आता है; क्योंकि ये दोनों धर्म आत्मामें एक साथ नहीं होते -क्रमसे होते हैं और क्रमसे उन्हें स्वीकार करनेपर वस्तु नित्य नहीं रहती । कारण, कर्तृत्वको छोड़कर भोक्तृत्व और भोक्तृत्वको त्यागकर कर्तृत्व होता है और ये दोनों ही आत्मासे अभिन्न होते हैं । यदि उन्हें भिन्न मानें तो 'वे आत्मा के हैं अन्यके नहीं' यह व्यवहार उत्पन्न नहीं हो सकता । यदि कहा जाय कि उनका आत्मा के साथ समवाय सम्बन्ध है और इसलिये 'वे आत्मा के हैं, अन्यके नहीं' यह व्यपदेश हो जाता है तो यह कहना योग्य नहीं है, क्योंकि उक्त समवाय प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणसे प्रतीत नहीं होता । यदि प्रत्यक्षसे प्रतीत होता तो उसमें विवाद ही नहीं होता, ५. किंतु विवाद देखा जाता है । योग -- आगमसे समवाय सिद्ध है, अतः उक्त दोष नहीं है ? जैन -- नहीं, जिस आगमसे वह सिद्ध सिद्धि बतलाना असंगत है । उसकी प्रमाणता अनिश्चित है । अतः उससे समवायकी योग -- समवायकी सिद्धि निम्न अनुमानसे होती है : - 'इन शाखाओं में यह वृक्ष है' यह बुद्धि सम्बन्धपूर्वक है, क्योंकि वह 'इहेदं' बुद्धि है । जैसे 'इस कुण्डमें यह दही है' यह बुद्धि । तात्पर्य यह कि जिस प्रकार 'इस कुण्ड में यह दहो है' यह ज्ञान संयोगसम्बन्ध के निमित्तसे होता है इसी प्रकार 'इन शाखाओं में यह वृक्ष है', यह ज्ञान भो समवायसम्बन्धपूर्वक होता है । अतः समवाय अनुमान से सिद्ध है ? जैन -- नहीं, उक्त हेतु 'इस वनमें यह आम्रादि हैं' इस ज्ञान के साथ व्यभिचारी है क्योंकि यह ज्ञान 'इहेद' रूप तो है किन्तु किसी अन्य सम्बन्ध पूर्वक नहीं होता और न योगोंने उनमें समवाय या अन्य सम्बन्ध स्वीकार किया भो है । केवल उसे उन्होंने अन्तराला भावपूर्वक प्रतिपादन किया है और यह प्रकट है कि अन्तराला भाव सम्बन्ध नहीं है । अतः इस अन्तरालाभावपूर्वक होनेवाले 'इहेदं' रूप ज्ञानके साथ उक्त हेतु व्यभिचारी होने से उसके द्वारा समवायकी सिद्धि नहीं हो सकती है । ऐसी हालत में बुद्ध्यादि एवं कर्तृत्वादिसे आत्मा भिन्न ही रहेगा और तब जड़ आत्मा धर्मकर्ता अथवा फल-भोक्ता कैसे बन सकता है ? अतः क्षणिकैकान्तको तरह नित्यैकान्तका मानना भी निष्फल है । अपि च, आप यह बतलाइये कि समवाय क्या काम करता है ? आत्मा और बुद्धयादिमें अभेद करता है अथवा उनके भेदको मिटाता है ? अन्य विकल्प सम्भव नहीं है ? प्रथम पक्षमें बुद्ध्यादकी तरह आत्म अनित्य हो जायगा अथवा आत्माकी तरह बुद्धयादि नित्य हो जायेंगे; क्योंकि दोनों अभिन्न हैं । दूसरे पक्ष में आत्मा और बुद्ध्यादिके भेद मिटनेपर घटपटादिकी तरह वे दोनों स्वतंत्र हो जायेंगे । अतः समवायसे पहले इनमें न तो भेद ही माना जा सकता है और न अभेद ही, क्योंकि उक्त दूषण आते हैं । तथा भेदाभेद उनमें आपने स्वीकार नहीं किया तब समवायको मानने से क्या फल है ? योग-भेदको हमने अन्योन्याभावरूप माना है अतः आत्मा और बुद्धधादिमें स्वतंत्रपनेका प्रसंग नहीं आता ? जैन - यह कहना भी आपका ठीक नहीं है, क्वोंकि अन्योन्याभाव में भी घट - पटादिकी तरह स्वतन्त्रता रहेगी -- वह मिट नहीं सकती । यदि वह मिट भी जाय तो अभेद होनेसे उक्त नित्यता- अनित्यताका दोष तदवस्थित है । Jain Education International - २९८ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29