Book Title: Syadwad aur Vadibhasinh
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

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Page 2
________________ और पूज्यपाद-देवनन्दि (विक्रमकी ६ ठी शती) ने क्रमशः जीवसिद्धि तथा सर्वार्थसिद्धि जैसे सिद्धयन्त नामके ग्रन्थ रचे हैं । सम्भवतः वादीभसिंहने अपनी यह 'स्याद्वादसिद्धि' भी उसी तरह सिद्धयन्त नामसे रची है । (ग) विषय-परिचय ग्रन्थके आदिमें ग्रन्थकारने प्रथमतः पहली कारिकाद्वारा मङ्गलाचरण और दूसरी कारिकाद्वारा ग्रन्थ बनानेका उद्देश्य प्रदर्शित किया है । इसके बाद उन्होंने विवक्षित विषयका प्रतिपादन आरम्भ किया है। वह विवक्षित विषय है स्याद्वादकी सिद्धि और उसी में तत्त्वव्यवस्थाका सिद्ध होना। इन्हीं दो बातोंका इसमें कथन किया गया है और प्रसङ्गतः दर्शनान्तरीय मन्तव्योंकी समीक्षा भी की गई है। इसके लिये ग्रन्थकारने प्रस्तुत ग्रन्थमें अनेक प्रकरण रखे हैं। उपलब्ध प्रकरणोंमें विषय-वर्णन इस प्रकार है : १. जीवसिद्धि--इसमें चार्वाकको लक्ष्य करके सहेतुक जीव (आत्मा) की सिद्धि की गई है और उसे भूतसंघातका कार्य माननेका निरसन किया गया है । इस प्रकरणमें २४ कारिकाएँ हैं। २. फलभोक्तृत्वाभावसिद्धि-इसमें बौद्धोंके क्षणिकवादमें दूषण दिये गये हैं। कहा गया है कि क्षणिक चित्तसन्तानरूप आत्मा धर्मादिजन्य स्वर्गादि फलका भोक्ता नहीं बन सकता, क्यांकि धर्मादि करनेवाला चित्त क्षणध्वंसी है-वह उसी समय नष्ट हो जाता है और यह नियम है कि 'कर्ता ही फलभोक्ता होता है' अतः आत्माको कथंचित् नाशशील-सर्वथा नाशशोल नहीं-स्वीकार करना चाहिए। और उस हालतमें कर्तृत्व और फलभोक्तृत्व दोनों एक (आत्मा) में बन सकते हैं। यह प्रकरण ४४ कारिकाओंमें पूरा हुआ है। ३. युगपदनेकान्तसिद्धि-इसमें वस्तुको युगपत्-एक साथ वास्तविक अनेकधर्मात्मक सिद्ध किया गया है और बौद्धाभिमत अपोह, सन्तान, सादृश्य तथा संवृति आदिकी युक्तिपूर्ण समीक्षा करते हुए चित्तक्षणोंको निरन्वय एवं निरंश स्वीकार करने में एक दूषण यह दिया गया है कि जब चित्तक्षणोंमें अन्वय (व्यापिद्रव्य) नहीं है-वे परस्पर सर्वथा भिन्न हैं तो 'दाताको ही स्वर्ग और वधकको ही नरक हो' यह नियम नहीं बन सकता। प्रत्युत इसके विपरीत भी सम्भव है--दाताको नरक और वधकको स्वर्ग क्यों न हो? इस प्रकरणमें ७४ कारिकाएं हैं। ४. क्रमानेकान्तसिद्धि-इसमें वस्तुको क्रमसे वास्तविक अनेक धर्मोवाली सिद्ध किया है। यह प्रकरण भी तीसरे प्रकरणको तरह क्षणिकवादी बौद्धोंको लक्ष्य करके लिखा गया है। इसमें कहा गया है कि यदि पूर्व और उत्तर पर्यायोंमें एक अन्वयी द्रव्य न हो तो न तो उपादानोपादेयभाव बन सकता है, न प्रत्यभिज्ञा बनती है, न स्मरण बनता है और न व्याप्तिग्रहण ही बनता है, क्योंकि क्षणिकैकान्तमें उन (पूर्व और उत्तर पर्यायों) में एकता सिद्ध नहीं होती, और ये सब उसी समय उपपन्न होते हैं जब उनमें एकता (अनुस्यूतरूपसे रहनेवाला एकपना) हो। अतः जिस प्रकार मिट्टी क्रमवर्ती स्थास-कोश-कुशूल-कपाल-घटादि अनेक पर्याय-धर्मोसे युक्त है उसी प्रकार समस्त वस्तुएं भो क्रमसे नानाधर्मात्मक हैं और वे नाना धर्म उनके उसी तरह वास्तविक हैं जिस तरह मिट्टीके स्थासादिक । यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि वादीभसिंहकी तरह विद्यानन्दने" भी अनेकान्तके दो भेद बतलाये १. गुणवद्र्व्यमित्युक्तं सहानेकान्तसिद्धये । तथा पर्यायवद्रव्यं क्रमानेकान्तवित्तये ॥-तत्त्वार्थश्लो० श्लो० ४३८ - २८८ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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