Book Title: Swatantrata ka Udghosh Author(s): Yashpal Jain Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 3
________________ स्वतंत्रता का उद्घोष कर्ता-कर्म का सम्बन्ध नहीं है" - इस सिद्धान्त को आचार्यदेव ने चार बोलों से स्पष्ट समझाया है - (१) परिणाम अर्थात् पर्याय ही कर्म है - कार्य है। (२) परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामी के ही होते हैं, अन्य के नहीं होते। क्योंकि परिणाम अपने-अपने आश्रयभूत परिणामी (द्रव्य) के आश्रय से होते हैं । अन्य का परिणाम अन्य के आश्रय से नहीं होता । (३) कर्ता के बिना कर्म नहीं होता अर्थात् परिणाम, वस्तु के बिना नहीं होता । ४ (४) वस्तु की निरन्तर एक समान स्थिति नहीं रहती; क्योंकि वस्तु द्रव्य पर्याय स्वरूप है। इसप्रकार आत्मा और जड़ सभी वस्तुयें स्वयं ही अपने परिणामस्वरूप कर्म की कर्ता हैं - ऐसा वस्तु स्वरूप का महान सिद्धान्त आचार्यदेव ने समझाया है और उसी का यह प्रवचन है। इस प्रवचन में अनेक प्रकार से स्पष्टीकरण करते हुए गुरुदेव ने भेदज्ञान को पुनः पुनः समझाया है। • देखो! इसमें वस्तुस्वरूप को चार बोलों द्वारा समझाया है। इस जगत में छह वस्तुयें/द्रव्य हैं- आत्मा अनन्त हैं, पुद्गल परमाणु अनन्तान्त हैं तथा धर्म, अधर्म, आकाश ये प्रत्येक एक-एक है और काल द्रव्य असंख्यात है - ऐसी छहों प्रकार की वस्तुयें और उनके स्वरूप का वास्तविक नियम क्या है? सिद्धान्त क्या है? उसे यहाँ चार बोलों में समझाया जा रहा है - (१) परिणाम ही कर्म है - प्रथम तो 'ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः' अर्थात् परिणामी वस्तु के जो परिणाम हैं; वही निश्चय से उसका कर्म है। कर्म अर्थात् कार्य । परिणाम अर्थात् अवस्था । पदार्थ की अवस्था ही वास्तव (3) परिणाम वस्तु का ही होता है में उसका कर्म/कार्य है। परिणामी अर्थात् अखण्ड वस्तु; वह जिस भाव से परिणमन करे, उसको परिणाम कहते हैं। परिणाम कहो, कार्य कहो, पर्याय कहो या कर्म कहो - ये सभी शब्द वस्तु के परिणाम के पर्यायवाची ही हैं। जैसे कि - आत्मा ज्ञानगुणस्वरूप है; उसका परिणमन होने से जो जानने की पर्याय हुई वह उसका कर्म है, वह उसका वर्तमान कार्य है। राग या शरीर वह कोई ज्ञान का कार्य नहीं; परन्तु 'यह राग है, यह शरीर है', - ऐसा उन्हें जानने वाला जो ज्ञान है, वह आत्मा का कार्य है। आत्मा का परिणाम वह आत्मा का कार्य है और जड़ का परिणाम अर्थात् जड़ की अवस्था वह जड़ का कार्य है; - इसप्रकार एक बोल पूर्ण हुआ । (२) परिणाम, वस्तु का ही होता है; दूसरे का नहीं - - अब, इस दूसरे बोल में कहते हैं कि जो परिणाम होता है, वह परिणामी पदार्थ का ही होता है; वह परिणाम किसी अन्य के आश्रय से नहीं होता। जिसप्रकार श्रवण के समय जो ज्ञान होता है, वह कार्य है - कर्म है। यह ज्ञान, किसका कार्य है? यह ज्ञान, कहीं शब्दों का कार्य नहीं है; परन्तु परिणामी वस्तु जो आत्मा है, उसीका वह कार्य है। परिणामी के बिना परिणाम नहीं होता । आत्मा परिणामी है - उसके बिना ज्ञानरूप परिणाम नहीं होता- यह सिद्धान्त है । वाणी के बिना ज्ञान नहीं होता यह बात सच नहीं है। शब्दों के बिना ज्ञान नहीं होता - ऐसा नहीं; परन्तु आत्मा के बिना ज्ञान नहीं होता - ऐसा है । इसप्रकार परिणामी आत्मा के आश्रय से ही ज्ञानादि परिणाम हैं। देखो! यह महा सिद्धान्त है, वस्तुस्वरूप का यह अबाधित नियम है। परिणामी के आश्रय से ही उसके परिणाम होते हैं। जाननेवाला आत्मा, वह परिणामी है, उसके आश्रित ही ज्ञान होता है; वे ज्ञानपरिणाम, आत्मा के हैं; वाणी के नहीं है। वाणी के रजकणों के आश्रितPage Navigation
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