Book Title: Swatantrata ka Udghosh
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 8
________________ स्वतंत्रता का उद्घोष वाह! देखो! आचार्यदेव की शैली, थोड़े में बहुत समा देने की अद्भुत शैली है। चार बोलों के इस महान सिद्धान्त में वस्तुस्वरूप के बहुत से नियमों का समावेश हो जाता है। यह त्रिकाल सत्य सर्वज्ञ द्वारा निश्चित किया हुआ सिद्धान्त है। अहो ! यह परिणामी के परिणाम की स्वाधीनता, सर्वज्ञदेव द्वारा कहा हुआ वस्तुस्वरूप का तत्त्व है। सन्तों ने इसका विस्तार करके आश्चर्यकारी कार्य किया है। १४ पदार्थ का पृथक्करण करके भेदज्ञान कराया है। अन्दर में इसका मन्थन करके देख तो मालूम हो कि अनन्त सर्वज्ञों तथा सन्तों ने ऐसा ही वस्तु-स्वरूप कहा है और ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है। सर्वज्ञ भगवन्त, दिव्यध्वनि द्वारा ऐसा तत्त्व कहते आये हैं- ऐसा व्यवहार से कहा जाता है; किन्तु वस्तुतः दिव्यध्वनि तो परमाणुओं के आश्रित है। कोई कहे कि अरे क्या दिव्यध्वनि भी परमाणु-आश्रित है? हाँ, दिव्यध्वनि वह पुद्गल का परिणाम है और पुद्गल परिणाम का आधार तो पुद्गल द्रव्य ही होता है; जीव उसका आधार नहीं हो सकता। भगवान का आत्मा तो अपने केवलज्ञानादि का आधार है। भगवान का आत्मा तो केवलज्ञान-दर्शन-सुख इत्यादि निज परिणामरूप परिणमन करता है; परन्तु कहीं देह और वाणीरूप अवस्था धारण करके परिणमित नहीं होता, उस रूप तो पुद्गल ही परिणमित होता है। परिणाम, परिणामी के ही होते हैं; अन्य के नहीं। भगवान की सर्वज्ञता के आधार से दिव्यध्वनि के परिणाम हुए - ऐसा वस्तुस्वरूप नहीं है। भाषारूप परिणाम, अनन्त पुद्गलाश्रित है और सर्वज्ञता आदि परिणाम जीवाश्रित है - इसप्रकार दोनों की भिन्नता है । कोई किसी का कर्ता या आधार नहीं है। देखो! यह भगवान आत्मा की अपनी बात है। समझ में नहीं आयेगी, ऐसा नहीं मानना । अन्दर लक्ष करे तो समझ में आये ऐसी सरल है। (8) कर्त्ता के बिना कर्म नहीं १५ देखो! लक्ष में लो! कि अन्दर कोई वस्तु है या नहीं ? और यह जो जानने के या रागादि के भाव होते हैं इन भावों का कर्ता कौन है? आत्मा स्वयं उनका कर्ता है। - इसप्रकार आत्मा को लक्ष में लेने के लिए दूसरी पढ़ाई की कहाँ आवश्यकता है? यह अज्ञानी जीव दुनियां की बेगार / मजदूरी करके दुःखी होता है, उसके बदले यदि वस्तुस्वभाव को समझे तो कल्याण हो जाये । अरे जीव ! ऐसे सुन्दर न्याय द्वारा सन्तों ने वस्तुस्वरूप समझाया है, उसे तू समझ वस्तुस्वरूप के दो बोल हुए। अब तीसरा बोल : (३) कर्ता के बिना कर्म नहीं होता - कर्ता अर्थात् परिणमित होने वाली वस्तु और कर्म अर्थात् उसकी अवस्था रूप कार्य। कर्ता के बिना कर्म नहीं होता; अर्थात् वस्तु के बिना पर्याय नहीं होती। सर्वथा शून्य में से कोई कार्य उत्पन्न हो जाये; ऐसा नहीं होता। देखो! यह वस्तु-विज्ञान का महान सिद्धान्त है; इस २११वें कलश में चार बोलों द्वारा चारों पक्षों से स्वतंत्रता सिद्ध की है। विदेशों में अज्ञान की पढ़ाई के पीछे हैरान होते हैं, उसकी अपेक्षा सर्वज्ञदेव कथित इस परम सत्य वीतरागी विज्ञान को समझे तो अपूर्व कल्याण हो । (१) परिणाम सो कर्म; यह एक बात । (२) वह परिणाम किसका ? - कि परिणामी वस्तु का परिणाम है, दूसरे का नहीं। यह दूसरा बोल; इसका बहुत विस्तार किया है। अब यहाँ इस तीसरे बोल में कहते हैं कि - परिणामी के बिना परिणाम नहीं होता । परिणामी वस्तु से भिन्न अन्यत्र कहीं परिणाम हो, ऐसा नहीं होता । परिणामी वस्तु में ही उसके परिणाम होते हैं। इसलिए परिणामी वस्तु, वह कर्ता है; उसके बिना कार्य नहीं होता । देखो! इसमें निमित्त के बिना नहीं होता- ऐसा नहीं कहा। निमित्त

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