Book Title: Swatantrata ka Udghosh Author(s): Yashpal Jain Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 9
________________ स्वतंत्रता का उद्घोष निमित्त में रहता है, वह, कहीं इस कार्य में नहीं आ जाता । इसलिये निमित्त के बिना कार्य होता है; परन्तु परिणामी के बिना कार्य नहीं होता। निमित्त भले हो; परन्तु उसका अस्तित्व तो निमित्त में है, इसमें (कार्य में) उसका अस्तित्व नहीं है। परिणामी वस्तु की सत्ता में ही उसका कार्य होता है। आत्मा के बिना सम्यक्त्वादि परिणाम नहीं होते। अपने समस्त परिणामों का कर्ता आत्मा है, उसके बिना कर्म नहीं होता। “कर्तृशून्यं कर्म न भवति" - प्रत्येक पदार्थ की अवस्था उस-उस पदार्थ के बिना नहीं होती। सोना नहीं है और गहने बन गये, वस्तु नहीं है और अवस्था हो गई - ऐसा नहीं हो सकता। अवस्था है, वह त्रैकालिक वस्तु को प्रगट करती है - प्रसिद्ध करती है कि यह अवस्था इस वस्तु की है। जैसे कि - पुद्गल जड़ कर्मरूप होते हैं, वे कर्म परिणाम, कर्ता के बिना नहीं होते । अब उनका कर्ता कौन? - तो कहते हैं कि - उस पुद्गल कर्मरूप परिणमित होने वाले रजकण ही कर्ता है; आत्मा उनका कर्ता नहीं है। (अ) आत्मा, कर्ता होकर जड़ कर्म का बन्ध करे - ऐसा वस्तुस्वरूप में नहीं है। (आ) जड़कर्म, आत्मा को विकार कराये - ऐसा वस्तु स्वरूप में नहीं है। (इ) मन्द कषाय के परिणाम, सम्यक्त्व का आधार हों - ऐसा वस्तुस्वरूप में नहीं है। (ई) शुभराग से क्षायिक सम्यक्त्व हो - ऐसा वस्तु रूप में नहीं है। तथापि अज्ञानी ऐसा मानता है - यह सब तो विपरीत है - अन्याय है। भाई! तेरा यह अन्याय वस्तुस्वरूप को सहन नहीं होंगे। वस्तुस्वरूप को विपरीत मानने से तेरे आत्मा को बहुत दुःख होगा - ऐसी करुणा सन्तों को आती है। सन्त नहीं चाहते कि कोई जीव दुःखी हो । जगत के सारे जीव सत्य स्वरूप को समझे और दुःख से छूटकर सुख प्राप्त करें - ऐसी उनकी भावना है। कर्ता के बिना कर्म नहीं भाई! तेरे सम्यग्दर्शन का आधार तेरा आत्मद्रव्य है। शुभ-राग कहीं उसका आधार नहीं है। मन्दराग, वह कर्ता और सम्यग्दर्शन उसका कार्य - ऐसा त्रिकाल में नहीं है। वस्तु का जो स्वरूप है, वह तीन काल में आगे पीछे नहीं हो सकता। कोई जीव, अज्ञान से उसे विपरीत माने उससे कहीं सत्य बदल नहीं जाता। कोई समझे या न समझे, सत्य तो सदा सत्यरूप ही रहेगा, वह कभी बदलेगा नहीं। जो उसे यथावत् समझेंगे वे अपना कल्याण कर लेंगे और जो नहीं समझेंगे उनकी तो बात ही क्या? वे तो संसार में भटक ही रहे हैं। देखो! वाणी सुनी, इसलिये ज्ञान होता है न? परन्तु सोनगढ़ वाले इन्कार करते हैं कि 'वाणी के आधार से ज्ञान नहीं होता', - ऐसा कह कर कुछ लोग कटाक्ष करते हैं; लेकिन भाई! यह तो वस्तुस्वरूप है। त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञ परमात्मा भी दिव्यध्वनि में यही कहते हैं कि - ज्ञान, आत्मा के आश्रय से होता है; ज्ञान, वह आत्मा का कार्य है, दिव्यध्वनि के परमाणु का वह कार्य नहीं है। ज्ञानरूप कार्य का कर्ता, आत्मा है; न कि वाणी के रजकण। जिस पदार्थ के जिस गुण का जो वर्तमान हो, वह अन्य पदार्थ के या अन्य गुण के आश्रय से नहीं होता। फिर उसका कर्ता कौन? कहते हैं कि वस्तु स्वयं । कर्ता और उसका कार्य दोनों - एक ही वस्तु में होने का नियम है - वे भिन्न वस्तु में नहीं होते। यह लकड़ी ऊपर उठी, वह कार्य है; यह किसका कार्य है? - कर्ता का कार्य; कर्ता के बिना कार्य नहीं होता। कर्ता कौन है? - लकड़ी के रजकण ही लकड़ी की इस अवस्था के कर्ता हैं; यह हाथ, अंगुली या इच्छा, उसके कर्ता नहीं हैं। अब अन्दर का सूक्ष्म दृष्टांत लें - किसी आत्मा में इच्छा और सम्यग्ज्ञान दोनों परिणाम वर्तते हैं; वहाँ इच्छा के आधार से सम्यग्ज्ञान (9)Page Navigation
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