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स्वतंत्रता का उद्घोष नहीं है। इच्छा, सम्यग्ज्ञान की कर्ता नहीं है। आत्मा ही कर्ता होकर उस कार्य को करता है। कर्ता के बिना कर्म नहीं है और दूसरा कोई कर्ता नहीं है; इसलिये जीव कर्ता द्वारा ज्ञानरूप कार्य होता है। इसप्रकार समस्त पदार्थों के सर्व कार्यों में सर्व पदार्थ का कर्तापना है - ऐसा समझना चाहिए।
देखो भाई! यह तो सर्वज्ञ भगवान के घर की बात है; इसे सुनकर सन्तुष्ट होना चाहिए। अहा ! सन्तों ने वस्तु-स्वरूप समझाकर मार्ग स्पष्ट कर दिया है । सन्तों ने सारा मार्ग सरल और सुगम बना दिया है, उसमें बीच में कहीं अटकना पड़े ऐसा नहीं है। पर से भिन्न ऐसा स्पष्ट वस्तुस्वरूप समझे तो मोक्ष हो जाये। बाहर से तथा अन्दर से ऐसा भेदज्ञान समझने पर मोक्ष हथेली में आ जाता है। मैं तो पर से पृथक् हूँ और मुझमें एक गुण का कार्य दूसरे गुण से नहीं है - यह महान सिद्धान्त समझने पर स्वाश्रय भाव से अपूर्व कल्याण प्रगट होता है ।
कर्म, अपने कर्ता के बिना नहीं होता यह बात तीसरे बोल में कहीं; और चौथे बोल में कर्ता की (-वस्तु की) स्थिति एकरूप अर्थात् सदा एक समान नहीं होती; परन्तु वह नये-नये परिणामों रूप से बदलती रहती है - यह बात कहेंगे। हर बार प्रवचन में इस चौथे बोल का विशेष विस्तार होता है; इस बार दूसरे बोल का विशेष विस्तार आया है।
कर्ता के बिना कार्य नहीं होता, यह सिद्धान्त है। यहाँ कोई कहे कि यह जगत कार्य है और ईश्वर उसका कर्ता है, तो यह बात वस्तुस्वरूप की नहीं है। प्रत्येक वस्तु, स्वयं ही अपनी पर्याय का ईश्वर है और वही कर्ता है, उससे भिन्न दूसरा कोई ईश्वर या अन्य कोई पदार्थ कर्ता नहीं है। पर्याय वह कार्य और पदार्थ उसका कर्ता ।
कर्ता के बिना कार्य नहीं और दूसरा कोई कर्ता नहीं । -
कोई भी अवस्था हो - शुद्ध अवस्था, विकारी अवस्था या जड़ ऐसा नहीं होता तथा दूसरा कोई कर्ता हो
अवस्था, उसका कर्ता न हो
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• ऐसा भी नहीं होता ।
(10)
कर्त्ता के बिना कर्म नहीं
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प्रश्न- तो क्या भगवान उसके कर्ता है ?
उत्तर - हाँ, भगवान कर्ता अवश्य हैं; परन्तु कौन भगवान ? अन्य कोई भगवान नहीं; परन्तु यह आत्मा स्वयं अपना भगवान है, वह कर्ता होकर अपने शुद्ध - अशुद्ध परिणामों का करता है। जड़ के परिणाम को जड़ पदार्थ करता है; वह अपना भगवान है ।
प्रत्येक वस्तु अपनी-अपनी अवस्था का रचयिता ईश्वर है। प्रत्येक पदार्थ अपना स्व का स्वामी है, उसे पर का स्वामी मानना मिथ्यात्व है। संयोग के बिना अवस्था नहीं होती ऐसा नहीं है; परन्तु वस्तु परिणमित हुए बिना अवस्था नहीं होती - ऐसा सिद्धान्त है ।
पर्याय के कर्तृव्य का अधिकार वस्तु का अपना है, उसमें पर का अधिकार नहीं है। इच्छारूपी कार्य हुआ, उसका कर्ता आत्मद्रव्य है । उस समय उसका ज्ञान हुआ, उस ज्ञान का कर्ता आत्मद्रव्य है।
पूर्व पर्याय में तीव्र राग था, इसलिये वर्तमान में राग हुआ, इसप्रकार पूर्व पर्याय में इस पर्याय का कर्तापना नहीं है। वर्तमान में आत्मा वैसे भावरूप परिणामित होकर स्वयं कर्ता हुआ है। इसीप्रकार ज्ञानपरिणाम, श्रद्धापरिणाम, आनन्दपरिणाम उन सबका कर्ता आत्मा है, पर कर्ता नहीं। पूर्व के परिणाम भी कर्ता नहीं तथा वर्तमान में उसके साथ वर्तते हुए अन्य परिणाम भी कर्ता नहीं हैं आत्मद्रव्य स्वयं कर्ता है।
शास्त्र में पूर्व पर्याय को कभी-कभी उपादान कहते हैं, वह तो पूर्व-पश्चात् की संधि बतलाने के लिए कहा है; परन्तु पर्याय का कर्ता तो उस समय वर्तता हुआ द्रव्य है, वही परिणामी होकर कार्यरूप परिणमित हुआ है।
जिस समय सम्यग्दर्शन पर्याय हुई; उस समय उसका कर्ता आत्मा ही है। पूर्व की इच्छा, वीतराग की वाणी या शास्त्र - वे कोई वास्तव में इस सम्यग्दर्शन के कर्ता नहीं है।