Book Title: Swadhyaya ki Maniya
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf

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Page 3
________________ ९६ दूर आत्म-1 का द्रष्टा नहीं बनेगा, तब तक वह उन्हें दूर करने का प्रयत्न नहीं करेगा और जब तक वे नहीं होंगे, तब तक आध्यात्मिक पवित्रता या आत्म-विशुद्धि सम्भव नहीं होगी। - विशुद्धि के बिना मुक्ति असम्भव है। यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि जो गृहिणी अपने घर की गन्दगी को देख पाती है, वह उसे दूर कर घर को स्वच्छ भी रख सकती है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपनी मनोदैहिक विकृतियों को जान लेता है और उनके कारणों का निदान कर लेता है, वही सुयोग्य वैद्य के परामर्श से उनकी योग्य चिकित्सा करके अन्त में स्वास्थ्य लाभ करता है। यही बात हमारी आध्यात्मिक विकृतियों को दूर करने की प्रक्रिया में भी लागू होती है । जो व्यक्ति स्वयं अपने अन्दर झाँककर अपनी चैतसिक विकृतियों अर्थात् कषायों को जान लेता है, वही योग्य गुरु के सान्निध्य में उनका निराकरण करके आध्यात्मिक विशुद्धता को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार स्वाध्याय अर्थात् स्व का अध्ययन, आत्म-विशुद्धि की एक अनुपम साधना सिद्ध होती है। हमें स्मरण रखना होगा स्वाध्याय का मूल अर्थ तो अपना अध्ययन ही हैं, स्वयं में झाँकना है। स्वयं को जानने और पहचानने की वृत्ति के अभाव से सूत्रों या ग्रन्थों के अध्ययन का कोई भी लाभ नहीं होता । अन्तर्चक्षु के उन्मीलन के बिना ज्ञान का प्रकाश सार्थक नहीं बन पाता है। कहा भी है — सुबहुपि सुयमहीयं, किं काही? चरणविप्पहीणस्स । अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्रकोडिवि । । अप्पंपि सुयमहीयं पयासयं होई चरणजुत्तस्स । इक्कोऽवि जह पईवो, सचक्खुअस्सा पयासेड़ ।। आवश्यकनिर्युक्ति, ९८-९९ अर्थात् जैसे अन्धे व्यक्ति के लिए करोड़ों दीपकों का प्रकाश भी व्यर्थ है; किन्तु आँख वाले व्यक्ति के लिए एक भी दीपक का प्रकाश सार्थक होता है। उसी प्रकार जिसके अन्तर्चक्षु खुल गये हैं, जिसकी अन्तर्यात्रा प्रारम्भ हो चुकी है, ऐसे आध्यात्मिक साधक के लिए स्वल्प अध्ययन भी लाभप्रद होता है, अन्यथा आत्म-विस्मृत व्यक्ति के लिए करोड़ों पदों का ज्ञान भी निरर्थक है। स्वाध्याय में अन्तश्चक्षु का खुलना - बनना, स्वयं में झाँकना पहली शर्त है, शास्त्र का पढ़ना या अध्ययन करना उसका दूसरा चरण है। — आत्म-द्रष्टा स्वाध्याय शब्द की दूसरी व्याख्या सु + आ + अधि + ईड इस रूप में भी की गयी है । इस दृष्टि से स्वाध्याय की परिभाषा होती है 'शोभनोऽध्यायः स्वाध्याय:' अर्थात् सत्साहित्य का अध्ययन करना ही स्वाध्याय है। स्वाध्याय की इन दोनों परिभाषाओं के आधार पर एक बात जो उभर कर सामने आती है वह यह कि सभी प्रकार का पठन-पाठन स्वाध्याय नहीं है। आत्म-विशुद्धि के लिए किया गया अपनी स्वकीय Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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