Book Title: Sutrakrutang me Varnit Kuch Rushiyo ki Pehchan Author(s): Arun Pratap Sinh Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf View full book textPage 2
________________ डॉ० अरुणप्रताप सिंह नमि विदेही --ऋषि नमि का उल्लेख सूत्रकृतांग के अतिरिक्त अन्य जैन ग्रन्थ, वैदिक तथा बौद्ध साहित्य में भी प्राप्त होता है। तीनों परम्पराओं में इन्हें विदेह, मैथिल और राजर्षि कहा गया है । बौद्ध धर्म के जातक साहित्य में नमि का उल्लेख प्रत्येक बुद्ध के रूप में किया गया है। जैन साहित्य के एक प्राचीन ग्रन्थ उत्तराध्ययन में भी नमि का उल्लेख प्रत्येक बुद्ध के रूप में हुआ है। इसमें नमि के त्याग का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि उन्होंने अपने सभी सम्बन्धियों एवं मिथिला नगरी को छोड़कर अभिनिष्क्रमण किया।' राजर्षि ( रायरिसी) के रूप में प्रसिद्ध नमि को क्रोध, मान, माया, लोभ को वश में करने वाला कहा गया है । नमि की शिक्षाओं का सार यह है कि मनुष्य को अपने अन्दर ही युद्ध करना चाहिए तथा पाँच इन्द्रियों, चार कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ) को जीतना चाहिए। अपने से अपने को जीतकर ही सच्चा सुख प्राप्त होता है । वैदिक साहित्य के ग्रंथ महाभारत में नमि का उल्लेख उत्तराध्ययन के समान ही हुआ है। महाभारत में इन्हें “निमि" कहा गया है तथा इन्हें विदेह का अधिपति कहा गया है। महाभारत में निमि का उल्लेख उन राजाओं एवं महात्माओं की श्रेणी में हुआ है जिन्होंने जीवन में कभी मांस का सेवन नहीं किया था।" महाभारत में एक अन्य निमि का भी उल्लेख प्राप्त होता है। इन्हें महर्षि दत्तात्रेय का पूत्र कहा गया है। परन्तु इनकी समता सूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन में वणित नमि से नहीं की जा सकती। मिथिला नरेश के रूप में नमि तीनों परम्पराओं में मान्य हैं। रामपुत्त --सूत्रकृतांग की कुछ प्रतियों में रामपुत्त का वर्णन रामगुत्त ( रामगुप्त ) के रूप में हुआ है। रामगुप्त प्रसिद्ध गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त का पुत्र तथा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का अग्रज था। प्राप्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि यह एक जैन धर्मावलम्बी नरेश था । इसका शासन अत्यन्त अल्प था तथा अन्त अत्यन्त दुःखद । परन्तु यदि हम इसे रामपुत्त मानकर सिद्धि प्राप्त करने वाले अन्य ऋषियों की श्रेणी में रखते हैं तो हमारे सामने अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित हो जाती हैं। प्रथम तो यह कि सूत्रकृतांग को हमें चतुर्थ-पञ्चम शताब्दी में ले जाना पड़ेगा जो सम्भव नहीं है । अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि सूत्रकृतांग का यह प्रथम श्रुतस्कन्ध जिसमें रामपुत्त का वर्णन है, आचारांग के समान ही प्राचीन है। इसके अतिरिक्त मिहिलं सपुरजणवयं, बलमोरोहं च परियणं सव्वं चिच्चा अभिनिक्खत्तो, एगन्तमहिट्ठिओ भगवं उत्तराध्ययन, ९/४ वही, ९५६ अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए दुज्जयं चेव अप्पाणं, सव्वं अप्पे जिए जियं वही, ९।३५, ३६ महाभारत, आदिपर्व ११२३४ वही, अनुनासिक पर्व, ११५।६५ वही, अनुनासिक पर्व ९१।५ ६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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