Book Title: Surya Pragnapati Chandra Pragnapati Ek Vivechan Author(s): Chhaganlal Shastri Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 8
________________ - - 308 "जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङका सूर्यप्रज्ञप्ति चन्द्रप्रज्ञप्ति का विवादास्पद प्रसंग भी उनमें था। देश के अनेक अन्य जैन विद्वानों, मुनियों एवं आचार्यों के समक्ष भी मैंने सूर्यप्रज्ञप्ति तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति से जुड़ी समस्या उपस्थापित की, किन्तु अद्यावधि वह समाहित नहीं हो पाई। इस संबंध में यहां एक प्रसंग का और उल्लेख करना चाहूंगा। विक्रम संवत् २०३१, सरदारशहर (राज.) में, जो मेरा जन्म स्थान है, साधुमार्गी जैन संघ के अधिनायक स्वनाम धन्य, विद्वन्मूर्धन्य अष्टम आचार्य श्री नानालाल जी म.सा. का चातुर्मासिक प्रवास था। तब समय समय पर उनके सम्पर्क में आने तथा अनेक तात्त्विक एवं आगमिक विषयों पर चर्चा-वार्ता, विचार-विमर्श करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त होता रहा था। मैंने आचार्यप्रवर के समक्ष सूर्यप्रज्ञप्ति एवं चन्द्रप्रज्ञप्ति विषयक प्रश्न भी रखा, जब दोनों के पाठ सर्वथा ऐक्य लिये हुए हैं, फिर इन्हें दो आगम स्वीकार करने की मान्यता कैसे स्थापित हुई? आचार्यप्रवर का संभवतः चन्द्रप्रज्ञप्ति सत्र के अन्त में आई हई छ: गाथाओं में से, जो वर्तमान में उपलब्ध सूर्यप्रज्ञप्ति में यथावत् रूप में हैं, उस गाथा की ओर ध्यान रहा हो, जिसमें यह कहा गया है कि यह आगम अति गूढार्थ लिये हुए है, किसी अयोग्य अनधिकारी व्यक्ति को इसका ज्ञान नहीं दिया जाना चाहिए, इसीलिए आचार्यप्रवर ने इस संदर्भ में एक संभावना का प्रतिपादन किया। उन्होंने फरमाया-- दोनों आगमों की शब्दावली एक होते हुए भी शब्दों की विविधार्थकता के कारण दोनों के अर्थ भिन्न रहे हों। गूढता के कारण रहस्यभूत भिन्न अर्थ किन्हीं बहुश्रुत, मर्मज्ञ आचार्यों या विद्यानिष्णात मुनियों को ही परिज्ञात रहे हों। गूढार्थकता, रहस्यात्मकता के कारण वे विज्ञ मनीषो ही किन्हीं योग्य पात्रों को इनका अर्थ बोध देते रहे हों, आगे चलकर साधारण पाठकों, अध्येताओं के ज्ञान की सीमा से दूरवर्ती होने से पाठ-सादृश्य के कारण लोगों में इनके एक होने की शंका बनी हो। उक्त आधार पर दोनों को दो भिन्न-भिन्न आगमों के रूप में माना जाना संभावित है। यह एक मननीय चिन्तन है। यहां एक बात और विचारणीय है, शब्दों के अर्थ वैविध्य के सूचक अनेकानेक कोश-ग्रन्थ विद्यमान हैं, जो शब्दों के सामान्य, असामान्य-गूढ़, दोनों ही प्रकार के अर्थों का बोध कराते हैं, किन्तु सूर्यप्रज्ञप्ति एवं चन्द्रप्रज्ञप्ति विषयक उन गृढ अर्थों को, जिन्हें तज्ञ विशिष्ट विद्वान ही ज्ञापित कर पाते थे, अवगत करने में आज नैराश्य आच्छन्न है। एक संभाव्य संयोग प्रस्तुत विषय पर मेरा विचार मन्थन चलता रहा। मैं समझता हूँ सूर्य- प्रज्ञप्ति नि:सन्देह एक पृथक् स्वतन्त्र आगम रहा हो। यदि वैसा नहीं होना तो सप्तम उपांग के रूप में वह क्यों गृहीत होना! जैसा पहले कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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