Book Title: Surya Pragnapati Chandra Pragnapati Ek Vivechan Author(s): Chhaganlal Shastri Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 6
________________ - - - 1306 • जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क धारेयध्वं णियमा. ण य अविणीएसु दायच्वं ।।5।। वीरवरस्स भगवओ. जर-मर-किलेस दोसरहियस्स। वंदामि विणयपण्णत्तो. सोक्खं पाइ संपाए।।6।। पहली पांच गाथाओं में इस आगम के अध्ययन के लिए योग्य. अयोग्य पात्रों की चर्चा की गई है। कहा गया है कि चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र अत्यन्त गूढ़ अर्थ युक्त है। अभव्य अयोग्य जनों के लिए यह दुर्लभ है। जिन्हें जानि, कुल आदि का मद हो, जो सत् सिद्धान्तों के प्रत्यनीक विरोधी हों, जो बहुश्रुत नहीं, जो गुरु मुख के बिना स्वयं पढ़ लेते हों, बाह्य ऋद्धियाँ प्राप्त कर लेते हों, फलस्वरूप जो नरक आदि गतियां प्राप्त करने वाले हों, ऐसे जनों को इसका ज्ञान नहीं देना चाहिए। ऐसे अनधिकारी, अपत्र जनों को जो साधु इसका ज्ञान देता है, वह प्रवचन, कुल, गण एवं संघ से बहिर्भूत होता है। जो जिन प्रवचन में श्रद्धाशील हो, सम्यकावी हों, धृति, उत्थान, उत्साह, कर्म. बल एवं वीर्य आत्मपराक्रम युक्त होते हुए ज्ञान ग्रहण करते हों, वे ही इसके अध्ययन के लिए योग्य पात्र हैं। छठी गाथा में जरा, मरण, क्लेश, दोषादि वर्जन तथा निराबाध, शाश्वत मोक्ष-सुखाधिगम मूलक विशेषताओं का वर्णन करते हुए भगवान् महावीर को वन्दन किया गया है। अन्त में “इति चंदपण्णत्तीए वीसमं पाहई सम्मन' अर्थात् चन्द्रप्रज्ञप्ति का का बीसवाँ प्राभृत समाप्त हुआ। इस वाक्य के साथ इस आगम का समापन होता है। यह चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र के कलेवर का विवेचन है। जिसे यहां उपस्थापित करने का एक विशेष प्रयोजन है. जो इस लेख में आगे-सूर्यप्रज्ञप्ति के विश्लेषण में स्वतः स्पष्ट हो जायेगा। सूर्य प्रज्ञप्ति सूर्यप्रज्ञप्ति सातवें उपांग के रूप में स्वीकृत है। सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति के संबंध में एक बहुत बड़ी समस्या है, जिसका विद्वज्जगत् में अब तक समाधान हो नहीं पाया है। वर्तमान में सूर्यप्रज्ञप्ति के नाम से जो आगम उपलब्ध है, उसका समग्र पाट चन्द्रप्रज्ञप्ति के सदृश है।। सबसे पहले सन् १९२० में परम पूज्य स्व. श्री अमोलकऋषि जी म. सा. द्वारा कृत हिन्दी अनुवाद के साथ सिकन्द्राबाद में बनीसों आगम का प्रकाशन हुआ। वहाँ सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति दोनों आगम दो अलग-अलग पुस्तकों के रूप में छपे हैं। विषयानुक्रम एवं पाठ दोनों के एक समान हैं। जब एक ही पाठ है तो फिर इन्हें दो आगगों के रूप में क्यों माना जाता रहा है इस संबंध में अब तक कोई ठोस अधार प्राप्त हो नहीं सका है। टोनों के संदर्भ में यहां कल विश्लोण करना अपेक्षित है नन्द्रग्रजदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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