Book Title: Surya Pragnapati Chandra Pragnapati Ek Vivechan
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ सूर्यप्रज्ञप्ति-चन्द्रप्राप्ति : एक विवेचन 309 गया, संभवत: काल-क्रम से वह लुप्त हो गया हो। लुप्त हो जाने के पश्चात् ऐसा घटित हुआ हो– हस्तलिखित पांडुलिपियों का कोई विशाल ग्रन्थ भंडार रहा हो, जैन आगम, शास्त्र एवं अनेकानेक विषयों के ग्रन्थ उसमें संगृहीत हों, ग्रन्थपाल या पुस्तकाध्यक्ष कभी आगमों का पर्यवेक्षण कर रहा हो, उन्हें यथावत् रूप में व्यवस्थित कर रहा हो। जैसा कि आम तौर पर होता है, वह सामान्य पढ़ा लिखा हो, आगमों के अग, उपांग, भेद, प्रभेद, इत्यादि के विषय में कोई विशेष जानकारी उसे न रही हो। अंगों के अनन्तर उपांगों की देखभाल करते समय यथाक्रम छठा उपांग चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र उसके हाथ में आया हो, इस सूत्र की वहाँ दो प्रतियाँ रही हों, पहली प्रति नामयुक्त मुखपृष्ठ, मंगलाचरण आदि सहित हो, उसी आगम की दूसरी प्रति में मुख पृष्ठ एवं मंगलाचरण तथा विषयसूचक अठारह गाथाओं वाला पृष्ठ विद्यमान न रहा हो। उस प्रति के पश्चात् सीधे उसके हाथ में आठवें उपांग निरयावलिका की प्रति आई हो, चन्द्रप्रज्ञप्ति की दूसरी प्रति को, जिसमें मुखपृष्ठ और प्रारंभ का मंगलाबरण आदिवाला पृष्ठ न होकर सीधा पाठ का प्रारंभ हो, आगमों के कलेवर, विषय-वस्तु आदि का परिचय न होने से ग्रन्थयाल ने सातवाँ उपांग सूर्यप्रज्ञप्ति समझ लिया हो और उस प्रति के ऊपर दूसरा कागज लगाकर उस पर सूर्यप्रज्ञप्ति नाम लिख दिया हो, क्योंकि शायद उसने समझा हो कि जब उपांग बारह हैं. उसी क्रम में उनमें यह बिना नाम की प्रति है तो छठे और आठवें उपांग के बीच यह सातवां उपांग ही होना चाहिए। अज्ञता के कारण इस प्रकार की भूल होना असंभव नहीं है। आगे चलकर उसी प्रति को आदर्श मानकर उसकी प्रतिलिपियाँ होती रही हो, क्रमश: यह भावना संस्कारगत होती रही हो कि यही सातवाँ उपांग सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र है। जब उत्तरवर्ती काल में विद्वानों का ध्यान पाठ की ओर गया हो, तब संभव है, उनके मन में ऐसी शंका उठी हो कि एक ही पाठ और नाम से दो पृथक् पृथक् आगम, यह कैसे? किन्तु जो परंपरा चल पड़ी, बद्धमूल हो गई. उसे नकारना उनके लिए कठिन हुआ हो, फलत: उसे ज्यों का त्यों चलने दिया जाता रहा हो। किसी तज्ञ पुरुष द्वारा चन्द्रप्रज्ञप्ति की इस दूसरी प्रति पर सातवें उपांग सूर्यप्रज्ञप्ति के रूप में संगत बनाने हेतु कतिपय पाहुड़ों की समाप्ति पर चन्द्रप्रज्ञप्ति के बदले सूर्यप्रज्ञप्ति शब्द का उल्लेख कर दिया गया हो। संगति बिठाने का यह कल्पनाप्रसूत क्रम जैसा पूर्वकृत विवेचन से स्पष्ट है, सभी पाहुड़ों के अंत में नहीं चलता, जिससे विसंगति और अधिक वृद्धिगत हो जाती है। अस्तु-साररूप में यही कथनीय है कि सूर्यप्रज्ञप्ति तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति की विवाटायटना का समाधान अब तक तो यथार्थन प्राप्न हो नहीं सका है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10