Book Title: Surya Pragnapati Chandra Pragnapati Ek Vivechan Author(s): Chhaganlal Shastri Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 1
________________ सूर्यप्रज्ञप्ति-चन्द्रप्रज्ञाप्ति : एक विवेचन डॉ. छगनलाल शास्त्री सूर्यप्रज्ञप्ति एवं चन्द्रप्रज्ञप्ति नाम से दो आगम हैं. किन्तु इनकी विषयवस्तु एवं पाठ लगभग समान ही हैं। अत: इस संबंध में विद्वज्जन ऊहापोह करते हैं कि आगमों के दो नाम होने पर भी विषयवस्तु एक किस प्रकार है? प्रोफेसर डॉ. छगनलाल शास्त्री ने अपने इस आलेख में इस बिन्दु को उठाया है एवं समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया है : ये देनों आगम ग्रह, तारा, नक्षत्र, सूर्य, चन्द्र आदि के साथ ज्योतिष्क गणित पर भी प्रकाश डालते हैं। इन आगमों का प्रतिपादन आधुनिक खगोल-विज्ञान से मेल नहीं खाता है, तथापि इससे आगमों में निहित खगोलविज्ञान का महत्त्व कम नहीं होता है। सम्पादक सूर्यप्रज्ञप्ति तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति- ये दोनों आगम उपांगों के अन्तर्गत गृहीत है। अत: इन पर चर्चा करने से पूर्व यह आवश्यक है कि अर्द्धमागधी जैन आगमों से अंग एवं उपांग मूलक विभाजन पर संक्षेप में प्रकाश डाला जाए। विद्वानों द्वारा श्रुत-पुरुष की कल्पना की गई। जैसे किसी पुरुष का शरीर अनेक अंगों का समवाय है, उसी की भाँति श्रुत पुरुष के भी अंग कल्पित किये गये। कहा गया "श्रुत पुरुष के बारह अंग होते हैं- दो चरण, दो जंघाएँ, दो ऊरु, दो गात्र - शरीर के आगे का भाग तथा पीछे का भाग, दो भुजाएँ, गर्दन व मस्तक यों कुल मिलाकर २+२+२+२+२+१+१=१२ बारह अंग होते हैं। इनमें- श्रुत पुरुष के अंगों में जो प्रविष्ट या सन्निविष्ट हैं, विद्यमान हैं वे आगम श्रुत पुरुष के अंग रूप में अभिहित हए हैं, अंग आगम हैं।" इस व्याख्या के अनुसार निम्नांकित बारह आगम श्रुत-पुरुष के अंग हैं। इनके कारण आगम वाङ्मय द्वादशांगी कहा जाता है.. १. आयारंग (आचारांग) २. सूयगडंग (सूत्रकृतांग) ३. ठाणांग (स्थानांग) ४. समवायांग ५. वियाहपण्णत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति अथवा भगवती) ६. णायाधम्मकहाओ (ज्ञाताधर्मकथा अथवा ज्ञातृधर्मकथा) ७. उवासगदसाओ (उपास कदशा) ८. अंतगडदसाओ (अन्तकृद् दशा) ९. अणुत्तरोववाइयदसाओ (अनुत्तरौपपातिक दशा) १०. पण्हावागरणाई (प्रश्नव्याकरण) ११. विवागसुय (विपाक श्रुत) तथा १२. दिट्ठिवाय (दृष्टिवाद)। उपांग उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जिन आगमों के संदर्भ में श्रोताओं का, पाठकों का, तीर्थकर प्ररूपित धर्म देशना के साथ गणधर ग्रथित शाब्दिक माध्यम द्वारा सीधा संबंध बनता है, वे अंगप्रविष्ट कहलाते हैं। उनके अतिरिक्त आगम अंग बाह्य कहे जाते हैं। यद्यपि अंगबाह्यों में वर्णित तथ्य अंगों के अनुरूप होते हैं, विरुद्ध नहीं होते, किन्तु प्रवाह परंपरया वे तीर्थकर भाषित से सीधे सम्बद्ध नहीं हैं, स्थविरकृत हैं। इन अंगबाह्यों में बारह ऐसे हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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