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स्तोत्र-रास-संहिता
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जहाज भक्त की तारी, पंखी रूप धर्यो हितकारी । संघ अचंभा मन में लावे, गुरु तब शुम व्याख्यान में हाल ‘सुनावे ||१८|| गुरु वाणी सुन सब हरखाये, गुरु भवतारण तरण कहाये। समयसुन्दर की पंच नदी में, फट गई जहाज नई की छिन में ||१९|| अब है सद्गुरु मेरी बारी, मुझ सम पतित न और भिखारी । श्री जिनचन्दसूरि महाराजा, चौरासी गच्छ के सिरताजा ॥२०॥ अकबर को अमक्ष छुडायो, अमावस को चांद उगायो । भट्टारक पद नाम धरावे, जय जय जय जय गुणि जन गावे ||२१|| लक्ष्मी लीला करती आवे, भूखां भोजन आन खिलावे । प्यासे मक्त को नीर पिलावे, जलधर उण बेला ले आवे ||२२|| अमृत जैसा जल बरसावे, कभी काल नहीं पड़ने पावे | अनधन से भरपूर. बनावे, पुत्र पौत्र बहु सम्पत्ति पावे ||२३|| चामर युगल ढुले सुखकारी, छत्र किरणीया शोमा भारी। राजा राणा शीश नमावे, देव परी सबही गुण गावे ॥२४॥ पूरब पच्छिम दक्षिण तांई, उत्तर सर्व दिशा के मांही । जोत जागती सदा तुम्हारी, कल्पतरु सद्गुरु गणधारी ||२५|| विजयइन्द्रसूरि सूरीश्वर राजे, छड़ीदार सेवक संग साजे । जो यह गुरु इकतीसा गावे, सुन्दर लक्ष्मी लीला पावे ||२६|| जो यह पाठ करे चितलाई, सदगुरु उनके सदा सहाई। वार एक सौ आठ जो गावे, राजदण्ड बन्धन कट जावे ||२७|| संवत