Book Title: Sramana 2007 10
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 8
________________ बौद्धों का शून्यवाद : अतएव, उन्हें 'माध्यमिक' नाम से अभिहित किया गया। चूँकि वे माध्यमिक, शून्य को 'ही परम तत्त्व मानते हैं, इसलिए उन्हें 'शून्यवादी' भी कहा जाने लगा। शून्यवादियों के मत को ही 'शून्यवाद' कहा जाता है। ३ जैसा पहले कहा गया, 'शून्यवाद' के अनुसार, शून्य की एकमात्र परम तत्त्व है । शून्यवादी बाह्य सत्ता और अन्तः सत्ता, दोनों में से किसी को भी स्वीकार नहीं करते। उनके मतानुसार, न सत् है, न असत्, न ही सदसत् है और न दोनों से भिन्न है, बल्कि वह इन चारों कोटियों से भिन्न 'अलक्षण' है। प्रसिद्ध बौद्धाचार्य नागार्जुन 'प्रतीत्यसमुत्पाद' (कारण पाकर कार्य की उत्पत्ति या कार्यकारणभाव: 'प्रति इत्य प्राप्य इदमुत्पद्यत इति कारणे सति, तत् प्रतीत्य प्राप्य सतुत्पादः ') के विकसित रूप को 'शून्यवाद' कहते हैं। उनके अनुसार, यह 'प्रतीत्यसमुत्पाद' ही 'शून्यवाद' है और इसे ही 'माध्यमिक-मत' कहा जाता है। : यः प्रतीत्यसमुत्पादः शून्यतां तं प्रचक्ष्महे । सा प्रज्ञप्तिरुपादाय प्रतिपत् सैव मध्यमा । । ' द्वितीय शती के बौद्ध आचार्य नागार्जुन ही शून्यवाद के प्रतिष्ठापक हैं। यद्यपि प्राचीन बौद्ध आम्नाय में शून्य पर विचार उपलब्ध होता है, तथापि उसका शास्त्रीय या सैद्धान्तिक रूप में प्रतिष्ठापन आचार्य नागार्जुन के द्वारा ही हुआ है। इनका जन्म एक दक्षिणात्य ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बौद्धधर्म में दीक्षित होने के बाद यह श्रीपर्वत पर रहने लगे थे। नागार्जुन की दार्शनिक प्रतिभा विलक्षण थी । इन्होंने शून्यवाद का वैदुष्यमण्डित तथ्यपूर्ण विवेचन किया है। इनकी शिखरस्थ रचना 'माध्यमिक कारिका' है, जिसे 'माध्यमिकशास्त्र' भी कहते हैं। इसमें शून्यवाद को कुल सत्ताईस प्रकरणों में पल्लवित किया गया है। इसके अतिरिक्त 'प्रज्ञापारमिताशास्त्र', 'शून्यसप्तति', 'युक्तिषष्टिका', 'विग्रहव्यावर्त्तिनी' आदि इनकी प्रमुख दार्शनिक रचनाएँ हैं। ये बौद्ध धर्म-दर्शन के शलाकापुरुष थे, साथ ही धातुशिल्प और रसायनशास्त्र के विशेषज्ञ भी थे। तृतीय शती के धुरन्धर बौद्ध आर्यदेव, इन्हीं नागार्जुन के शिष्य थे, जिन्होंने आस्तिक और नास्तिक, सभी दर्शनों का गम्भीर अध्ययन किया था । 'चतुःशतक', 'चित्तविशुद्धिप्रकरण' एवं 'हस्तबालप्रकरण' इनके प्रमुख ग्रन्थ हैं। स्थविर बुद्धिपालित (पाँचवीं शती) बौद्ध दर्शन के प्रामाणिक आचार्य हैं। इन्होंने नागार्जुन की 'माध्यमिक कारिका' पर 'प्रज्ञाप्रदीप' नामक व्याख्या लिखी है। आठवीं शती के आचार्य शान्तिरक्षित शून्यवादी आचार्यों की परम्परा में पांक्तेय थे।

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