Book Title: Sramana 2007 10
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 7
________________ २ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००७ इस कथन को नहीं मानते कि 'विज्ञान ही एकमात्र सत्ता है और वही भ्रान्तिवश बाह्य पदार्थों के समान प्रतीत होता है।' सौत्रान्तिकों का कहना है कि दो पदार्थों में सादृश्य तभी सम्भव है,जबदोनों का अस्तित्व भिन्न-भिन्न हो(तद्भिन्नत्वेसति तद्रतभूयोधर्मवत्त्वं सादृश्यम्)। दोनों पदार्थों को एक मानने पर सादृश्य-ज्ञान नहीं होगा। अत: इससे जागतिक बाह्य वस्तु की पृथक् सत्ता सिद्ध नहीं होती। दूसरे पदार्थों की, समकालिक पृथक्ता की प्रतीति से भी एकता सिद्ध नहीं होती। __ 'वैभाषिक' नाम इसलिए पड़ा कि इस सम्प्रदाय के अनुयायी 'विभाषा' (टीका) को अन्तिम प्रामाण्य मानते हैं, पर सौत्रान्तिकों का कथन है कि 'विभाषा' मानव रचित होने से दोषपूर्ण हो सकती है। उनके मतानुसार बुद्ध ने अभिधर्म के सिद्धान्तों का सूत्रों या सूत्रान्तों (सुत्त या सुत्तन्त) में उपदेश किया था, इसलिए केवल ये ही प्रमाण हैं और इसीलिए वे बौद्ध 'सौत्रान्तिक' कहलाये। 'सर्वदर्शनसंग्रह' में बताया गया है कि 'सूत्रों का अन्त (रहस्य, लक्ष्य) पूछे जाने पर बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा है कि आप लोग सूत्रों का अन्त पूछते हैं, इसलिए सौत्रान्तिक हो जायें।' (भवन्तश्च सूत्रस्यान्तं पृष्टवन्त: सौत्रान्तिका भवन्तु।' - सर्वदर्शनसंग्रह) हीनयान-सम्प्रदाय के ये दोनों मत-वैभाषिक और सौत्रान्तिक- बाह्य पदार्थों की सत्ता स्वीकार करते हैं, पर दोनों के मन्तव्यों में अन्तर यह है कि वैभाषिक पदार्थों का अव्यवहित (अबाधित) प्रत्यक्षमानता है और सौत्रान्तिक कहते हैं कि संसार के समस्त पदार्थ क्षणभंगुर हैं। अतः प्रत्येक पदार्थ के क्षणिक होने से उसका प्रत्यक्ष होना सर्वथा असम्भव है। इसलिए प्रत्यक्ष के अभाव में अनुमान भी नहीं होगा। किन्तु सौत्रान्तिकों के मन्तव्य का तात्पर्य यह नहीं कि बाह्य वस्तु का प्रत्यक्ष होता ही नहीं, उनका कहना है कि बाह्य वस्तु का प्रत्यक्ष होता है, पर व्यवहित (बाधित) प्रत्यक्ष होता है। महायानियों के दो सम्प्रदायों में प्रथम योगाचर-सिद्धान्त है और दूसरा माध्यमिक सिद्धान्त। योगाचार को ही विज्ञानवाद कहते हैं, जिसकी उत्पत्ति माध्यमिकों के शून्यवाद के प्रतिवाद-रूप में हुई है। योगाचार-मत के अनुयायी संसार के बाह्य पदार्थों की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, किन्तु (विज्ञान) के अस्तित्व में उनका प्रबल विश्वास है। बाह्य जगत् की शून्यता (असत्यता) को समझने के लिए विज्ञानवादी योग का आचरण करते थे, इसलिए इन्हें 'योगाचार' भी कहा जाता है। तृतीय शती के आचार्य मैत्रेयनाथ योगाचार के प्रतिष्ठापक थे। महायान का दूसरा, माध्यमिक-मत शून्यवाद के नाम से अभिहित किया * जाता है। इस मत के अनुयायी न तो तपस्वी जीवन जीना चाहते थे, न ही संसारी जीवन। उन्होंने उक्त दोनों पद्धतियों का परित्याग कर मध्यम-मार्ग का अनुसरण किया।

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