Book Title: Siddhachakra Vidhan
Author(s): Santlal Pandit
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur
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मिद्ध० दी द्री द्रावय द्रावय स ह क्ष्वी वी ह स स्वाहा । ॐ ह्रा ह्री ह ह्री ह्र असिग्राउमा अस्य। वि०६ सर्वाङ्गशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा ।। गन्ध आरोपयामि ।। (सारे शरीर पर हाथ फेरे) । १११ वस्त्र शुद्धि-धौतान्तरीयं विधु-कान्ति-सूत्रः सद्ग्रन्थित धौत-नवीन-शुद्धम् ।
नग्नत्व-लब्धिर्न भवेच्च यावत् सघायंते भूषणमूरुभूम्याः ।। सव्यानमचद्दशया विभान्तमखड-धौताभिनव-मृदुत्वम् ।
सधार्यते पीत-सिताशु-वर्णमंशोपरिष्टाद् धृत-भूषणाकम् ।। तिलक-पात्रेऽपितं चदनमौषधोशं शुभ्र सुगंधाहत-चचरीक ।
स्थाने नवाके तिलकाय चर्य न केवलं देह-विकार-हेतोः ।।
ॐ ह्रा ह्री ह. ह्रौ ह्र असिग्राउसा मम सर्वाङ्गशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा । (रक्षा बधन (कटक)-सम्यक्-पिनद्ध-नव-निमल-रत्न-पक्तिरोचिर्व हवलय-जात-बहु-प्रकार)
___ कल्याण निर्मितमह कटक जिनेश-पूजा विधान-ललिते स्वकरे करोमि ।
ॐ ह्री णमो अरहताण रक्ष रक्ष स्वाहा इति ककरण अवधारयामि । (मुद्रिका धारण)-प्रत्युप्त-नील-कुलिशोपल-पद्म-राग-निर्यकर-प्रकरबद्ध-सुरेन्द्रचापम् ।
जनाभिषेक-समयेऽगुलि-पर्व-मूले रत्नागुलीयकमह विनिवेशयामि ।। ॐ ह्री रत्नमुद्रिका अवधारयामि स्वाहा । (अनामिका मे अटी पहरे)

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