Book Title: Shrutsagar Ank 2013 08 031
Author(s): Mukeshbhai N Shah and Others
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Pd श्रुतसागर - ३१ स्तम्भवृत्ति-प्राणायाम कुम्भक है। (द) तुरीय-वृत्ति • बाह्य एवं अभ्यंतर प्रवेशों में सूक्ष्म दृष्टि से वायु की बहुविध प्रयत्नों से सिद्ध होने वाली स्तम्भ-वृत्ति ही तुरीयवृत्ति प्राणायाम है। ५. प्रत्याहार - इसमें इन्द्रियों को विषयों से विमुख करके लाया जाता है इसलिए यह प्रत्याहार कहलाता है अथवा विषयों से इन्द्रियों का बलपूर्वक आहरण ही प्रत्याहार है। ६. धारणा - प्राण और मन को विधिपूर्वक अंगुष्ठादि चक्रों में स्थिर करना धारणा है। अथवा चित्तवृत्ति की स्थान विशेष में स्थिरता ही धारणा है। ७. ध्यान - वृत्ति के एक से बने रहने की अवस्था ध्यान है और यही ध्यान योग है। इसमें चित्त की चंचलता नष्ट हो जाती है। ८. समाधि - संप्रज्ञात् समाधि ध्यान की ही पराकाष्ठा है। ध्येय मात्र का स्फुरण अहंकार रहित-ब्रह्माकारवृत्ति का उदय तथा त्रिपुटीलय आदि संप्रज्ञात् समाधि में होता है। इसी समाधि को लय योग भी कहा जाता है। श्री रामचन्द्रकृत सामायिक पाठ में निम्न पंक्तियों के माध्यम से समाधि की विभावना को इस प्रकार दर्शाया गया है हे भद्र आशन लोक पूजा संग की संगत तथा। ये सब समाधि के न साधन वास्तविक में है प्रथा ।। समाधि से अभिप्राय सविकल्प-समाधि है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार ये पाँच योग के बहिरंग साधन हैं तथा धारणा, ध्यान और समाधि ये तीन योग के आन्तरिक साधन हैं। ध्येयमात्र का स्फुरण समाधि है और स्वरूप का स्फुरण असंप्रज्ञात योग है। योगबिन्दु में आध्यात्मिक विकास की स्थितियाँ - (१) मित्रदृष्टि और यम - यम अर्थात् अहिंसादि पाँच महाव्रतों का पालन मित्रदृष्टि साधक करता है। इस अवस्था का आत्मबोध सम्यक्त्व सहित तो होता है किन्तु शुभ क्रियाओं में मोह राग या रुचि के चलते पूर्ण परित्यक्ततायुक्त नहीं होता। (२) तारादृष्टि और नियम • इस दशा में साधक शौच, संतोष, तप और स्वाध्याय आदि नियमों का पालन करते हुए शुभ कार्यों के प्रति अप्रेम का गुण व तत्वज्ञान की जिज्ञासा का सृजन कर लेता है। For Private and Personal Use Only

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