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जून २०१३
यह प्रतिमा भगवान महावीर के जीवनकाल में ही निर्मित हुई अतः उसे जीवितस्वामी संज्ञा दी गई।
प्रतिमा के लिए लकड़ी काटने के प्रसंग अनेक ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। बृहद्संहिता के वनसम्प्रदेशालय में वन में जाकर वहाँ से लकड़ी काटकर घर लाने और तत्पश्चात उससे देवी-देवताओं की प्रतिमा बनाने का वर्णन हुआ है। जैनों का अर्धमागधी आगम साहित्य में लकड़ी द्वारा निर्माण की कला को 'कट्ट्ठकम्म' कहा गया है तथा व्यवहार में वरातक मुनि का संदर्भ मिलता है। जिसकी काष्ठ मूर्ति बनायी गयी थी और उसके पुत्र द्वारा पूज्य थी । 'अंतगडदसाओ' ग्रंथ में मोग्गरपाणि यक्ष की काष्ठ की बनी हुई प्रतिमा का उल्लेख हुआ है। यह राजगृह नगर के बाहर बनी हुई थी । शिलामय चैत्यगृहों का वास्तु विन्यास पूर्ववर्ती काष्ठकर्म से लिया गया है। ये महाकाय पर्णशालाएँ थीं जिनमें काष्ठतोरण और बडे-बडे काष्ठ पंजर और खम्भे लगाये जाते थे। स्तूपों के स्तम्भों और तोरणों पर विभिन्न अलंकरण उत्कीर्ण किये जाते थे, जो मूलभूत काष्ठकर्म के अंग थे, जैसे-चन्दनकलश या पूर्णघट, आसन, छत्र चामर, आदि । चन्द्रगुप्त मौर्य ( ई. पू. ३२५ ) के राजप्रासाद में फर्श और छत में काष्ठ का ही प्रयोग हुआ था । विद्वानों के अनुसार शिल्प के वे आचार्य जिन्होंने बराबर पहाडी (बिहार) में चट्टानी गुफाओं का निर्माण किया, पूर्ववर्ति काष्ठ शिल्प में पूर्णतः दक्ष थे । मौर्यशुंग युग काष्ठ शिल्प से पाषाण शिल्प का संक्रान्तिकाल था, मथुरा के आयागपट को भी इसी क्रम में देखा जा सकता है।
साहित्यिक और आभिलेखिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मथुरा का कंकाली टीला एक प्राचीन जैन स्तूप था। जैन परम्परा के अनुसार इसका निर्माण सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के समय में हुआ था। जैन परम्परा में मथुरा की प्राचीनता सुपार्श्वनाथ के समय तक प्रतिपादित की गई है। जहाँ कुबेरा देवी ने सुपार्श्व की स्मृति में एक स्तूप बनवाया था । विविधतीर्थकल्प (१४वीं सदी) में उल्लेख है कि पार्श्वनाथ के समय में सुपार्श्व के स्तूप का विस्तार और पुनरुद्धार हुआ था, तथा बप्पभट्टसूरी ने वि. सं. ८२६ ( ७६९ ई.) में पुनः उसका जीर्णोद्धार करवाया। इस परवर्ति साहित्यिक परम्परा की एक कुषाणकालीन तीर्थंकर मूर्ति से पुष्टि होती है जिसकी पिठिका पर लेख (१६७ ई.) है कि यह मूर्ति देवनिर्मित स्तूप में स्थापित की गई।
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(क्रमशः)