Book Title: Shrutsagar Ank 2012 09 020
Author(s): Mukeshbhai N Shah and Others
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 31
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वि.सं.२०६८-द्वि. भाद्रपद ज्योतिर्विद आचार्य श्री अरुणोदयसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब का नौवाँ मासक्षमण संपूर्ण परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य श्रीमद् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब के शिष्य परम पूज्य ज्योतिर्विद आचार्य श्री अरुणोदयसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब का नौवाँ मासक्षमण का पारणा दिनांक १९/०८/१२ को सम्पूर्ण हुआ। इस मंगलमय अवसर पर कोबा श्रीसंघ की ओर से विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों के साथ पारणा महोत्सव का आयोजन किया गया था। प्रातः ७ बजे मन्दिरजी में प्रभुदर्शन व भक्ति कार्यक्रम के पश्चात् परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज आदि ठाणा की निश्रा में भव्य शोभायात्रा निकाली गई। शोभायात्रा में गजराज, अश्वराज, बैण्ड, पताके के साथ हजारों नर-नारी सम्मिलित थे। जिनशासन, पूज्य राष्ट्रसन्त एवं तपस्वी के जयकारों से वायुमण्डल गूंजायमान हो रहा था। सम्पूर्ण वातावरण धर्ममय बना हुआ था। शोभायात्रा के पश्चात् धर्मसभा का आयोजन किया गया | परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य श्रीमद् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज ने तप का महत्त्व बतलाते हुए कहा कि भगवान महावीरस्वामी ने स्वयं कठोर तपश्चर्या की थी। चौबीस तीर्थकरों में जितनी कठोर तपश्चर्या भगवान महावीरस्वामी ने की उतनी कठोर तपश्चर्या और किसी भी तीर्थकर को नहीं करनी पड़ी। क्योंकि जिसप्रकार के कर्मों का बन्धन भगवान महावीरस्वामी को था वैसे कर्मों के बन्धन अन्य तीर्थंकरों को नहीं थे। भगवान महावीरस्वामी ने स्वयं कठोर तप करके हमें यह उपदेश दिया है कि मोक्ष प्राप्ति में तपश्चर्या की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। तप का भेद बताते हुए पूज्य आचार्य भगवन्त ने कहा कि तप मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं। बाह्य तप एवं अभ्यन्तर तप । उपवास आदि बाह्यतप के द्वारा कर्मों का छेदन किया जाता है तथा नये पुण्यकर्मो का बन्ध किया जाता है। तप करने से हमारी आत्मा निर्मल एवं शुद्ध होती है। मन में वैराग्य भाव उत्पन्न होता है। शुद्ध भावपूर्वक की गई तप की अग्नि अनेक जन्मों के संचित कर्मों को जला देती है| आहार के प्रति विरक्ति का भाव उत्पन्न करने के लिए उपवास का तप किया जाता है। पूज्य आचार्यश्री ने कहा कि आत्मा जब दूसरे भव में गमन करती तब वह वहाँ जाकर सर्वप्रथम आहार ग्रहण करती है और उस आहार के द्वारा शरीर का निर्माण करती है। इसलिये ज्ञानियों ने कहा है कि हमें सबसे पहले आहार के प्रति विरक्ति का भाव उत्पन्न करना होगा और वह भाव उपवास करने से ही उत्पन्न होता है। हमें सदैव आहार के प्रति विरक्ति का भाव ही धारण करना चाहिए। यदि हम आहार के प्रति आसक्त बने रहेंगे तो यह जन्मजन्मान्तर से चला आ रहा जन्म-मरण का सिलसिला कभी रुक नहीं पाएगा। आप सभी उपवास तप की आराधना करें यही मंगल कामना ज्योतिर्विद आचार्य श्री अरुणोदयसागरसूरीश्वरजी महाराज के साधुजीवन एवं तपाराधना की अनुमोदना करते हुए पूज्य राष्ट्रसन्त ने कहा कि ये बाल्यावस्था से ही धार्मिक प्रवृत्तियों से जुड़े रहे हैं। जब साधु जीवन ग्रहण नहीं किया था, तभी से उपवास आदि करते आ रहे हैं। इन्होंने ज्योतिष विद्या में अच्छा ज्ञान प्राप्त किया है। इन्होंने अनेक जिनालयों की भूमिपूजन व प्रतिमाओं के अंजनशलाकाविधि आदि की तिथियों का निर्धारण किया है, जो सर्वोत्तम माना गया है। ये जिनशासन की सेवा में सदैव जाग्रत रहते हैं। इनका शिष्य परिवार भी दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। इस मंगलमय अवसर पर अहमदाबाद के शेठ श्रीमान सोहनलालजी चौधरी परिवार की ओर से सुन्दर नौकारसी एवं प्रभावना की व्यवस्था की गई थी। For Private and Personal Use Only

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