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तदा ते परमं सुखं *
अनुवाद : मनोज जैन यदेदं निःस्पृहं भूत्त्वा परित्यज्य बहिर्धमम् स्थिरं सम्पत्स्यते चित्तं तदा ते परमं सुखम् ।। हे जीवात्मा ! निःस्पृही बनके बाह्य जगत के परिभ्रमण को छोड़ कर जब तेरा चित्त (आत्मा में) स्थिर बनेगा तब तुम्हें परम सुख होगा. पहले कभी नहीं मिलनेवाला मानसिक सुख प्राप्त होगा.
भक्ते स्तोतरि कोपान्धे, निंदा कर्तरिचोत्थिते। यदा समं भवेच्चित्तं, तदा ते परमं सुखम् ।। जब अनुरागी व्यक्ति स्तुति करता हो या कोपान्ध व्यक्ति निंदा करने के लिये उपस्थित हुआ हो, जब दोनों के प्रति समान भाववाला चित्त बनेगा तब तुझे परम सुख होगा.
स्वजने स्नेहसम्बद्धे, रिपुवर्गेऽपकारिणी । स्यात् तुल्यं ते यदा चित्तं, तदा ते परमं सुखम् ।। मीठे मधुरे स्नेह युक्त स्वजन हो या अपना अहित करनेवाला दुश्मन इन दोनों के प्रति जब तुम्हारा चित्त समान वृत्ति रखने लगेगा तब तुम्हें उत्कृष्ट मानसिक सुख होगा.
शब्दादिविषयग्रामे, सुन्दरेऽसुन्दरेऽपि च । एकाकारं यदा चित्तं, तदा ते परमं सुखम् ।। मधुर शब्द हो या कटुवाक्य हो, षड्रस भोजन में और अरुचिकर पदार्थ में, आँखों को सुख देने वाला सुंदर रूप अथवा कुरूप सामने आ जाय, घ्राणेन्द्रिय को प्रसन्न करने वाली सुरभिगन्ध हो या नाक सिकुड़ाने वाली दुर्गंध आ रही हो, स्पर्शद्रिय को भानेवाला कोमल स्पर्श हो या अप्रिय कर्कश स्पर्श हो इन सभी द्वन्द्वों में जब एक जैसा चित्त होगा तब तुम्हे उत्कृष्ट मानसिक सुख मिलेगा.
गोशीर्षचन्दनालेपि, वासीच्छेदकयोर्यदा। अभिन्नचित्तवृत्तिः स्यात्, तदा ते परमं सुखम् ।। गोशीर्ष चंदन से भक्ति करनेवाले भक्त के उपर और तलवार से शिरच्छेद करनेवाले दुष्ट के उपर जब अभिन्न चित्त वृत्ति होगी तब तुम्हे परमसुख की प्राप्ति होगी.
सांसारिकपदार्थेषु, जल कल्पेषु ते यदा। अश्लिष्टं चित्तपद्मं स्यात्, तदा ते परमं सुखम् ।। जल जैसे संसार के सभी पदार्थों के प्रति तेरा मन रुपी कमल अश्लिष्ट (अलिप्त) रहने लगे तब तुम्हें परम सुख होगा.
दृष्टेषूद्दामलावण्यबंधुरङ्गेषु योषिताम् । निर्विकारं यदा चित्तं, तदा ते परमं सुखम् ।। उद्दाम रुप-लावण्य से युक्त सुंदर अंगोंवाली ललनाओं को देखने पर भी यदि तेरा मन निर्विकार दशा में रहे तब तुम्हारे चित्त में अकल्प्य सुखानुभूति अर्थात् विकल्प रहित सुख उत्पन्न होगा.
यदा सत्त्वैकसारत्वादर्थकामपराङ्मुखम्। धर्मे रतं भवेच्चित्तं, तदा ते परमं सुखम् ।। अर्थलोभ एवं कामासक्ति से पराङ्मुख होकर जब (एक धर्म ही मनुष्य जन्म का सार है ऐसा समझ कर) तुम धर्म में रमण करने लगोगे तब तुम्हें वास्तविक सुखं का अनुभव करने मिलेगा.
* विद्वद् शिरोमणि श्री सिद्धर्षि महाराजा विरचित 'उपमितिभवप्रपंचकथा' से संकलित - मन को सुखानुभव करवाने के परम-उपाय.
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