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श्रुतसागर
फरवरी-२०२० इसी परम्परा में वडगच्छ के आचार्य श्री सर्वदेवसूरीश्वरजी महाराज हुए। उनकी पाट परम्परा में आचार्य धर्मघोषसूरि के शिष्य आचार्य चक्रेश्वरसूरीश्वरजी महाराज हुए। चक्रेश्वरसूरीश्वरजी के छः शिष्य आचार्य हुए- सुमतिसिंहसूरि, बुद्धिसागरसूरि त्रिदशप्रभसूरि, तीर्थसिंहसूरि, शिवप्रभसूरि तथा कीर्त्तिप्रभसूरि । इनमें से शिवप्रभसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य श्री तिलकाचार्य ने वि. १२९६ में आवश्यकनियुक्ति के ऊपर इस लघुवृत्ति की रचना की।
श्री तिलकाचार्य ने उपर्युक्त लघुवृत्ति के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों की भी रचना की है। जैसे वि. १२६२ में प्रत्येकबुद्ध चरित्र, वि. १२७४ में जितकल्पसूत्र वृत्ति, वि. १२७७ में सम्यक्त्वप्रकरण वृत्ति, वि. १३०४ में सामाचारी, श्राद्धप्रतिक्रमण सूत्रवृत्ति, साधुप्रतिक्रमण सूत्रवृत्ति, पाक्षिकसूत्र अवचूरि, पाक्षिक क्षामणक अवचूरि, श्रावक प्रायश्चित सामाचारी, चैत्यवन्दन लघुवृत्ति तथा दशवैकालिक सूत्रवृत्ति आदि।
श्री तिलकाचार्य रचित इस टीका का सम्पादन व संशोधन श्री पुण्यकीर्तिविजयजी गणि ने किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रत श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानभंडार, पाटण से प्राप्त हुई है, जो वि. १५७० में लिखी गई है तथा पाठान्तर के लिए वि. १४९१ में लिखित एल.डी. इन्डोलोजी से प्राप्त प्रत का उपयोग किया गया है। इन प्रतों के अतिरिक्त छाणी तथा खम्भात से प्राप्त दो अन्य प्रतों का भी उपयोग किया गया है। [] में दिए गए पाठ शुद्धप्राय तो हैं, परन्तु किसी भी हस्तप्रत में प्राप्त नहीं हुए हैं, __इस प्रकार इस ग्रन्थ का अभ्यास ज्ञानावरणीय, दर्शन-मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय कर्मों का क्षय कर सिद्धिपद की प्राप्ति में सहायक बने, यही प्रभु से प्रार्थना है तथा परम पूज्य पुण्यकीर्तिविजयजी गणि म. सा. से करबद्ध निवेदन है कि इस प्रकार की विशिष्ट कृतियों का संपादन कर साधु-साध्वीजी भगवन्त, विद्वदवर्ग तथा श्रीसंघ को उपकृत करते रहें। ___ यह ग्रन्थ प्रताकार छुटे पन्नों में मुद्रित होने के कारण परम पूज्य साधु-साध्वीजी भगवन्तों के अध्ययन-मनन हेतु अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा, विहार में ले जाने में सरलता रहेगी तथा जिस पाठ का अभ्यास चल रहा हो, उतने ही पृष्ठ विहार में साथ रख सकेंगे।
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