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स्वमत कदाग्रह ईहां नही, नही पर निंदा बुद्धि; केवल हित-करणी कही, मोक्षमारगनी शुद्धि
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छे मणि माला तुल्य;
दुषण रहित अनेक गुण, ज्ञाता ग्राहक कर चड्या, थासे एह अमूल्य
प्रीते जे पुन्यातमा, कंठे धरस्ये एह; शिववधु वरसे तेहनइं, लहस्ये सौख्य अछेह१५
जिम मथवाथी उमटे, गोरसमां नवनीत;
तिम सम्यक् आलोचता, संत पामसे प्रीत अक्षर एक पण एहनो, छे चिंतामणि प्राय; पण मूरख मन सर्व ए, वाय वायानी न्याय
यद्यपि खलजन एहमां, अछता देसे दोष; तो पण संत अनेक मन, उपजस्ये महा तोष सूर्य मे ही धूने, जलद 'जवासा गात्र; तो पिण महिमा तेहनो, न घटे एक तिल मात्र
जे अयुक्त भाख्यु ईहां, में कांई मंदबुद्धि; ते समदृष्टि संत जन, शोधी करजो शुद्धि नय-प्रमाण - रत्ने भर्यो, जे गंभीर अगाध; जिनमत - रत्नाकर जयो, अवितथ-वाक्य अबाध सत्तरसे छ्यांसी (१७८६) समे, ए शिक्षाशत सार; फागुण वदि पांचम गुरु, रच्यु एह दिल्ली मझारि (र) ए शिक्षाशत जे सुगुण, भणे धरी मन भाव; हंसरत्न कहे तास घर, जय-कमला थीर थाय
1 घूवडने. 2 एक छोड़.
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॥ इति श्री शिक्षाशतबोधिका संपूर्णम् ॥
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