Book Title: Shrutsagar 2016 08 Volume 03 03
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 32
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR August-2016 टीकाग्रन्थ, कर्मसाहित्य, प्रकरणादि, लाक्षणिक साहित्य, जैन काव्य साहित्य तथा दक्षिण भारतीय भाषाओं में रचित जैन साहित्य के विषय में प्रामाणिक परिचय प्राप्त हो सकता है। हिंदी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास- हिन्दी भाषा का प्राचीनतम स्वरूप जो जैन साहित्य के रूप में सुरक्षित है उससे हिंदी विद्वत् जगत् आज भी अपरिचित है। यह चार भागो में प्रकाशित हुआ है। भाग-१ में मरु-गुर्जर या प्राचीन हिंदी के आदिकाल से लेकर १६वीं शती के अंत तक के कवियों और उनकी रचनाओं का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। भाग-२ में १७वीं शताब्दी (वि.सं.१६०१-१७००) के हिंदी जैन लेखकों की रचनाओं का विवरण दिया गया है। भाग-३ में १८वीं (वि.सं.१७०१-१८००) तक हुए जैन साहित्यकारों और उनकी सुलभ रचनाओं का विवरण दिया गया है। इस काल को स्वर्ण युग माना जाता है। भाग-४ में १९वीं (वि.सं.१८०१-१९००) शताब्दी के जैन साहित्यकारों के साहित्य का विवरण दिया गया है। इस तरह इस इतिहास से लोकोपयोगी जैन साहित्य एवं साहित्यकारों का परिचय प्राप्त होता है। ___ तपागच्छ का इतिहास- श्वेतांबर मूर्तिपूजक समुदाय में तपागच्छ का स्थान सर्वोपरि है। वि.सं.१२८५ में आचार्य जगच्चंद्रसूरि को आघाटपुर के शासक जैत्रसिंह से 'तपा' बिरुद् प्राप्त हुआ था। इस आधार पर उनकी शिष्य संतति तपागच्छीय कहलायी। इस शोधकार्य के लेखक डॉ. शिवप्रसाद हैं। इन्होंने प्रारंभ से २०वीं शताब्दी तक के इतिहास को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया है। ___ अचलगच्छ का इतिहास- श्वेतांबर मूर्तिपूजक समुदाय में अचलगच्छ का अंत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। वि.सं. ११६९ में आचार्य आर्यरक्षितसूरि के द्वारा विधिमार्ग की प्ररूपणा और उसका पालन करने के कारण यह गच्छ अस्तित्व में आया। इस गच्छ के गौरवशाली आचार्यों का विवरण इस ग्रन्थ में दिया गया है। For Private and Personal Use Only

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