Book Title: Shravakopayogi Shramanachar
Author(s): Dilip Dhing
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 2
________________ || 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी 319 वह कषायों से होता है। आचार्य भद्रबाहु कहते हैं - ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा, आग को तनिक और कषायों को अल्प नहीं मानना चाहिये, क्योंकि ये थोड़े ही बहुत हो जाते हैं। जैन परम्परा के आचार पक्ष में कषाय-त्याग को मुख्य मानने से समाज में धार्मिक अन्धविश्वासों व कर्मकाण्डों पर चोट हुई। आचार्य हरिभद्र ने कहा - किसी पन्थ या वाद में मानव का कल्याण नहीं है, कल्याण तो कषायो को छोड़ने में हैं। इससे सामाजिक, धार्मिक व मानवीय एकता की राह प्रशस्त हुई। चारों कषायों का विवरण निम्नानुसार है - 1. क्रोध -प्रत्येक व्यक्ति शान्ति और सम्पन्नता की दिशा में आगे से आगे बढ़ना चाहता है। वह सम्पन्नता महज धन तक सीमित नहीं है। जीवन के सभी क्षेत्रों मे व्यक्तित्व का वैभव प्रकट होना चाहिये। ऐसे बहुआयामी वैभवशाली जीवन के लिए क्रोध का परित्याग मुख्य शर्त है। प्राचीन ग्रन्थ इसिभासियाई में कहा गया है - कोहेण अप्पं डहती परं च, अत्थं च धम्मं च तहेव काम। तिव्वं ये वेरं पिकरेंति कोधा, अधमं गतिं वा विउविंति कोहा।।' क्रोध से व्यक्ति स्वयं को जलाता है, दूसरो को जलाता है। वह धर्म, अर्थ और काम को जलाता है। तीव्र वैर कराने वाला क्रोध जीवन के पतन का भी कारण है। आचारांग में कहा गया है कि क्रोध आयु को नष्ट करता है। व्यक्ति स्वयं क्रोध नहीं करे, यह एक पक्ष है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि वह दूसरों के क्रोध का निमित्त भी न बने। भगवती आराधना में क्रोध की हानियाँ बताते हुए कहा गया है कि क्रोधग्रस्त मानव का वर्ण नीला पड़ जाता है, वह हतप्रभ हो जाता है तथा उसका सौन्दर्य नष्ट हो जाता है। व्यग्रता और बेचैनी से उसे शीतकाल में भी प्यास लगने लग जाती है। क्रोध दुश्मन का अपकार करता है तथा परिवारजनों, मित्रों व अपनों के लिए समस्या का प्रत्यक्ष कारण बनता है।' भगवतीसूत्र में क्रोध के दस नाम बताये गये हैं - (1) क्रोध, (2) कोप, (3) द्वेष : स्वयं पर अथवा दूसरों पर द्वेष करना। स्वयं पर द्वेष करते हुए व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। कभी-कभी दूसरों से द्वेष करते हुए भी व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। आत्महत्या कषाय का परिणाम है। इससे कौटुम्बिक और सामाजिक गौरव नष्ट होता है।, (4) रोष (नाराजगी), (5) संज्वलन (ईर्ष्या करना) : ईर्ष्या जीवन में वैर और अस्वस्थ-स्पर्धा बढ़ाती है।, (6) अक्षमा (गलती माफ नहीं करना), (7) कलह, (8) चण्डिक्य (क्रोध का बीभत्स रूप), (9) भण्डन : किसी पर हाथ उठाना या काया से अनुचित व्यवहार करना। (10) विवाद : अंट-शंट बोलना, झगड़ा कायम रखना और अनावश्यक बहस करना। क्रोध विपन्नता और विपत्तियों को न्यौता देता है, जबकि अक्रोध से सम्पन्नता और सम्पत्ति में अभिवृद्धि होती है। क्रोध नहीं करने वाला अपनी अपरिमित प्राण ऊर्जा बचा लेता है। वह सहिष्णु, विवेकवान तथा विचारपूर्वक कार्य करने वाला होता है। वह क्षमावान, सर्वप्रिय, अच्छी निर्णय क्षमता वाला और दूरदर्शी होता है। वह हमेशा पारिवारिक/सामाजिक विग्रह और क्लेश से बचा रहता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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